*लौटकर ना आयेंगे हम*
कितने चेहरे लेकर घुमते हैं लोग !! पहचानना मुश्किल हैं !! सुना था गिरगिट रंग बदलने मे महीर होता हैं !! यहा तो इंसान उससे आगे निकल गया !! दिखवे का मुखौटा लगाकर बात करते हैं !! उन्हें लगता हैं कि हम ना समझ हैं !! जिस दिन चले गये !! फिर ना लौट के आयेंगे हम !! हम भी ये सोच कर सुनते हैं !! कि आखिर कीस हद…
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*मैंने ईश्वर को पा लिया....…*
विश्व का वैभव विपुल गृह में सजा, हो सुरक्षित, आणविक हथियार से। ग्रह, नखत, गिरि, उदधि, यह सुंदर धरा, कर समर्पण, झुक रहे हैं प्यार से। वारि, विद्युत, वायु, नभ पाताल सारे, सर्वदा, सेवक बने, अनुकूल हैं। आदेश पर है, ताप, चढता-उतरता, सामने पड़ते न, कोई शूल हैं। कर नियंत्रण, पूर्ण इस ब्रह्माण्ड, पर, फिर भ…
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धोता परमेश्वर,‌ दीन-चरण...…
जिनके  प्रताप  से  हो  आहत, सारे नक्षत्र, ग्रह व्यथित-विकल। ये,  चांद - सूर्य - सागर -पृथ्वी, सेवारत,   घुटने  टेक, निवल। 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷 यह  महिषासुर, भीषण-  प्रचंड, ये चंड-मुंड   -  निशुम्भ -  शुम्भ। ये  रावण,  कंस, हिरण्यकशिपु, रौंदते सिंधु - मथ, यथा   कुम्भ। 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷?…
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किसी के चेहरे पर, दिव्य यदि, मुस्कान ला दोगे...…
किसी के चेहरे पर दिव्य,    यदि मुस्कान, ला दोगे, मिटेगी पीर, जीवन की,   दुखद वाधा, भुला दोगे। हृदय की घाटियां तेरी, भरीं, रंगीन ‘वृन्दावन’, रास-रस-लीन-‘गोपी’-संग, मृदुल, ‘मोहन‌’ बसा लोगे। खिले जो पुष्प डाली पर, इन्हें खिल, खिलखिलाने दो, मधुर गुंजार-रत, भ्रमरों में, मधु संसार, पा लोगे। यहां रोते हुए…
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बन वही भगवान जाता है...…
खलों के क्रूर उत्पीड़न से, व्याकुल, व्यथित जीवन को, चला जो त्राण देंने, बन वही, भगवान जाता है। शिखर भूधर की ऊंची झुक, चरण में नत, विनत होकर, सतत्  हिमवान से वह, उच्चतम, सम्मान पाता है। पथ-स्थित, सागरों की लहर, का तूफान, थम जाता, लहर की मंद शीतलता से, मुक्ति थकान, पाता है।   पड़ी पथ में, अगर अवरोध, …
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‘ईद’ मुबारक विश्व का कल्याण हो..…
‘ईद’ आई  लगाने,  गले  से  तुझे, बस गले ही न लग, दिल मिला लीजिए, मेट मन की  मलिनता, कलुषता मिटा, द्वेष, पर्वत  सा  फैला, गला दीजिए। 🌺🌺🌺🌺🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌸🌸🌸🌸🌸 दिल में नफरत-घुलन, का मिटे सिलसिला, स्नेह-अमृत  की  घूंटें, पिला  दीजिए। देखो  मुर्झा  न  जाये, सु-मन-वाटिका, स्नेह-जल, सींच कर के,  खिला…
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*यह बिना भेद करती भक्षण...…*
ये हैं गरीब ‘अनजान-उदधि’, इनकी ‘अनजान, गुफाओं’ में। हैं छिपे हुए, अनमोल रत्न, भर देंगे प्रभा, दिशाओं में। ये हैं ‘कानन अनजान’, भरे, हंसते, खिलखिला ‘प्रसूनों’ से। इनकी कर सदा, उपेक्षा हम, वंचित हो गए, नमूनों से। हो सकी नहीं ‘प्रतिभा’, विकसित, खा मार, गरीबी-झोकों से। शोषण अनवरत हुआ, इनका,  ‘संभ्रांत’…
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*श्रमिक-दिवस*
यह धरा, धरोहर है उनकी, सत्कर्म-निष्ठ, संघर्ष-लीन। पत्थर पर दूब उगाते जो, वाधायें मिट, होतीं, विलीन। श्रमिक ही राष्ट्र-शिल्पी होता है परंतु आज वह उपेक्षित है। बहुत ही व्यथा होती है कि शोषण-कर्ता यह नहीं अनुभव कर सकते हैं कि शोषक और शोषित का गंतव्य -स्थल एक ही है। फिर यह शोषण क्यों? “The boast of h…
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*शिक्षा में राजा-रंक नही...…*
सत्ता-सुंदरी वरण करती, उसको जो, टहल बजाता हो। जो हो विल्कुल प्रतिभा-वंचित, हां में हां सदा मिलाता हो। इंजीनियर-डाक्टर बना रहे, कर खर्च रुपये मात्र एक। बस दलितों, आदिवासियों तक, यह कितनी घातक, घृणित-टेक। ऐसा एकांगी विश्लेषण,                                              जो करे तंत्र, जन-तंत्र नहीं।…
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यह ‘एवमस्तु’ कहना दो त्याग मेरे मौला..…
आते हो यदि भ्रमण पर, भारत में आज रघुवर, देखोगे तुम बनों को, ले प्यार उर, ‘अयोध्या’। पत्थल के शौध होंगे, वन-पर्वतों से लाये, ‘शबरी’ नहीं मिलेगी, मिलती नहीं ‘अहिल्या’। वनवास, वन की कुटिया से, प्यार है तुम्हारा, लांक्षन लगा, प्रिया पर, वन भेज दे रहे हो। कुटिया में जन्म लेते, कुश-लव, तनय तुम्हारे, कुटि…
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*मेरी ऑखे रोज बरसती हैं*
ये मौसम बारिश का अब पसंद नहीं मुझे  !! ऐ बारिश जरा खुल कर बरस !! इतनी रिमझिम तो मेरी आँखें रोज बरसती हैं !! मेरे अपने आंसू ही बहुत है !! भीग जाने के लिये !! रात भर गिरते रहे उनके दामन में मेरे आँसु !! सुबह उठते ही वो बोले कल रात बारिश गजब की थी !! तरस आता है मुझे अपनी मासूम सी पलकों पर !! जब भीग …
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*देह का समंदर*
तुम अगर देह से पार जाते तो जान पाते प्रेम को.. खारे पानी से बुझती नहीं है प्यास कभी भी.. काश कि तुमने जाना होता इस सत्य को !!! मैं युगों-युगों से खड़ी रही  इस पार लेकिन अफ़सोस !! तुम कभी भी न लांघ सके देह के इस समंदर को..! सुमन जैन ''सत्यगीता'' ✍️ साभार-विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा।
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ले सीख ‘महाभारत’ से तुम, ‘रामायण’ गले लगा लेना...
‘त्रैलोकी’ के सर्वोच्च राज्य से, छोड़ स्वहक, तज, राग-द्वेष। दे चला, अनुज को ताज, बसा कानन, हर्षित हो त्याग क्लेश।   तज, ‘ताज’, ‘पादुका’ अग्रज का,  ले अनुज कर रहा, पारायण। अनुलंघनीय, प्रतिमान बनी,  मर्यादा–युत हो, ‘रामायण’। लुट गया जहां हो धर्म–राज्य, छल‌-छद्म-जुए के, पाशो में। लुटती अबला की इज्जत ह…
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जो भी दीनों की ब्यथा हरे, मेरी कविता का नायक है.....
मैं कवि हूं, कविता करता हूं, उसमें सारा ब्रह्माण्ड, लीन। जो यहां, वही सर्वत्र, यहां जो, नहीं, हो गया, वह विलीन। दुख-दग्ध प्राणि के उर रोती, पीड़ा की राग, सुनाता हूं। वेदना, विलख कर सिसक रही, संवेदन-भाव, जगाता हूं। कौशला-गोद में, बैठ राम, होंगे मेरे न, उपास्य कहीं। जो राज-महल में चहक रहे, वे सारे है…
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