जो भी दीनों की ब्यथा हरे, मेरी कविता का नायक है.....




मैं कवि हूं, कविता करता हूं,

उसमें सारा ब्रह्माण्ड, लीन।

जो यहां, वही सर्वत्र, यहां जो,

नहीं, हो गया, वह विलीन।


दुख-दग्ध प्राणि के उर रोती,

पीड़ा की राग, सुनाता हूं।

वेदना, विलख कर सिसक रही,

संवेदन-भाव, जगाता हूं।


कौशला-गोद में, बैठ राम,

होंगे मेरे न, उपास्य कहीं।

जो राज-महल में चहक रहे,

वे सारे हैं, आराध्य नहीं।  


मेरे आराध्य राम वन  में,

दीनों का, हर, दुःख लेते हैं।

शबरी की गोदी में बैठे,

मां को अनुपम सुख देते हैं।


गोपी-रस में रस-लीन श्याम,

का, मैं कवि, नहीं पुजारी हूं।

जो नग्न द्रौपदी बचा रहा,

उस केशव का आभारी हूं।


द्वारिका  सर्व  आनंद  भरी,

रूक्मणी-अंक  के नंदन में।

हैं कृष्ण काम-रस-मग्न वहां,

रति रस लेतीं, आलिंगन में।   


यह मनमोहन का सम्मोहन,

कर  सका न मुझको आकर्षण।

दीनों की हरते व्यथा जहां,

मेरी पूजा होती, अर्पण।


रो-रो कर, धोते विप्र-चरण,

बैठा, निर्धन सिंहासन पर।

वह दीन सुदामा-कृष्ण-सखा,

बैठे मेरे हिय-आसन पर।


विद्वत जनों को सादर समर्पित एवं अभिनंदन...

महेंद्र राय✍️ 

पूर्व प्रवक्ता, अंग्रेजी, आजमगढ़। 



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