विश्व का वैभव विपुल गृह में सजा,
हो सुरक्षित, आणविक हथियार से।
ग्रह, नखत, गिरि, उदधि, यह सुंदर धरा,
कर समर्पण, झुक रहे हैं प्यार से।
वारि, विद्युत, वायु, नभ पाताल सारे,
सर्वदा, सेवक बने, अनुकूल हैं।
आदेश पर है, ताप, चढता-उतरता,
सामने पड़ते न, कोई शूल हैं।
कर नियंत्रण, पूर्ण इस ब्रह्माण्ड, पर,
फिर भी, मैं बेचैन, गत-आनंद हूं।
ढूंढता मैं उस परम-आनंद को,
हिय-बसाए, मैं विपुल दुःख-द्वंन्द्व हूं।
ढूंढ वृंदावन, व ब्रज-मथुरा-अवध,
काशी, मदीना, कर्बला, येरूशलम।
पहुंच मक्का में, गिरा बेचैन थक,
हो गये जगदीश, बिल्कुल बेरहम।
तीर्थ-यात्री जो धनिक-सम्पन्न, सारे,
कर उपेक्षित, छोड़ मुझ, बेचैन को।
ले रहे आनंद, महलों भव्य में,
सौंप मरने हेतु, मुझको रैन को।
एक आया दीन, लख मुझको, पड़ा,
ले गया मुझको, कुटी निज दीन में।
दीन-शैय्या, चीथड़ा-निर्मित, सुला,
नवल जीवन-शक्ति, भर दी हीन में।
जागकर मैं देखता स्तव्ध हो,
दीन में दर्शन किया, जगदीश का।
भव्य मंदिर, चर्च, मश्जिद छोड़, पाया,
दीन-कुटिया में, बसे, निज ईश को।
विद्वत जनों को सादर समर्पित एवं अभिनंदन...…
महेन्द्र राय
पूर्व प्रवक्ता अंग्रेजी आजमगढ़।
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