*श्रमिक-दिवस*

 


यह धरा, धरोहर है उनकी,

सत्कर्म-निष्ठ, संघर्ष-लीन।

पत्थर पर दूब उगाते जो,

वाधायें मिट, होतीं, विलीन।


श्रमिक ही राष्ट्र-शिल्पी होता है परंतु आज वह उपेक्षित है। बहुत ही व्यथा होती है कि शोषण-कर्ता यह नहीं अनुभव कर सकते हैं कि शोषक और शोषित का गंतव्य -स्थल एक ही है। फिर यह शोषण क्यों?

“The boast of heraldry, the pomp of power, And all that Beauty, all that wealth ever gave, Awaits alike the inevitable hour, The paths of Glory lead but to the Grave.” Thomas Gray..…                         

अमर महाकवि थामस ग्रे का मंतव्य है की राजा हो या रंक, मृत्यु अपने प्रहार में रंच मात्र भी कूलीनता से प्रभावित न होकर, समान भावना से कव्रगाह में व्यवहार करेगी। वह कोई भी पक्षपात नहीं कर सकती। राजा हों या रंक, मृत्यु के डंक से समान रूप से व्यवहारित होंगे। 

अतः कृपा करके शोषण  का घृणित धंधा शोषक वर्ग वंद करें, बर्ना काल की करालता, अपना न्याय परक  प्रभाव, विस्तारित करने को, विवश हो जायेगी।


हे राष्ट्र-प्रगति-रथ-संचालक! 

निर्माता अनुपम, शिल्पकार।!

तुम हुए उपेक्षित-शोषित हो, 

जबकि सुपात्र तुम, नमस्कार।


उच्चतम शौध, वैभव अनंत,

तव श्रमप्रसूत, ये सृजन सकल।

उत्पादन कर, हो मोह विगत,

हतभाग्य! सदा तुम, व्यथित विकल।


शोषक! शोषण कर, शोषित का तुम, 

अमर  नहीं  बन पाओगे।

शोषित दुःख  ले, है गया जहां,

 तुम वहीं पयादे, जाओगे।


विद्वत जनों को सादर समर्पित एवं अभिनंदन..…

महेन्द्र राय 

पूर्व प्रवक्ता अंग्रेजी, आजमगढ़। 



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