यह ‘एवमस्तु’ कहना दो त्याग मेरे मौला..…


आते हो यदि भ्रमण पर, भारत में आज रघुवर,

देखोगे तुम बनों को, ले प्यार उर, ‘अयोध्या’।

पत्थल के शौध होंगे, वन-पर्वतों से लाये,

‘शबरी’ नहीं मिलेगी, मिलती नहीं ‘अहिल्या’।


वनवास, वन की कुटिया से, प्यार है तुम्हारा,

लांक्षन लगा, प्रिया पर, वन भेज दे रहे हो।

कुटिया में जन्म लेते, कुश-लव, तनय तुम्हारे,

कुटिया में पल रहे हैं, तप-तेज दे रहे हो।


मैं जानता हूं रघुवर! सच्चिदानंद तुम हो,

आनंद प्राप्त करते, तुम दीन की कुटी में।

हैं शवरियां अनेकों पर, ढाक-बेर-कुटिया-

वन सब, समा गये हैं, भू-माफिया-भृकुटि में।


ये वे नहीं शबरियां त्रेता की, प्यार-बेरें,

तुमको खिला, हिये-रख, बस मुक्ति मांगती हैं।

ये कलियुगी शबरियां, लड्डू विरस, खिलाकर,

पाने विभूति-वैभव की, युक्ति मांगती हैं।


आदत है यह तुम्हारी, झट ‘एवमस्तु’ कहना,

दो त्याग मेरे मौला! महंगी तुम्हें पड़ेगी।

इच्छा अनंत सबकी, अंबार है यहां पर,

पूरी न कर सकोगे, कहनी ही, ‘ना’, पड़ेगी।


माना कि तूं , लगाया, अंबार-सुख धरा पर,

वह कैद, माफिया की, कारा में, सो रहा है।

तंगी में मर रहे हैं, दुनियां के लोग सारे,

इनका वह ‘स्वर्ग’ सारा, हो कैद, रो रहा है।


सब लोग जानते हैं, रहना यहां नहीं है,

जायेंगे हम यहां से, कुछ भी न, साथ होगा।

फिर भी अधम, निलज हो, हैं ठग रहे, स्वजन को,

आये हैं मुठ्ठी बांधे, जा, रिक्त हाथ होगा।


विद्वत जनों को सादर समर्पित एवं अभिनंदन..…

महेन्द्र राय 

पूर्व प्रवक्ता अंग्रेजी, आजमगढ़। 



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