‘त्रैलोकी’ के सर्वोच्च राज्य से,
छोड़ स्वहक, तज, राग-द्वेष।
दे चला, अनुज को ताज,
बसा कानन, हर्षित हो त्याग क्लेश।
तज, ‘ताज’, ‘पादुका’ अग्रज का,
ले अनुज कर रहा, पारायण।
अनुलंघनीय, प्रतिमान बनी,
मर्यादा–युत हो, ‘रामायण’।
लुट गया जहां हो धर्म–राज्य,
छल-छद्म-जुए के, पाशो में।
लुटती अबला की इज्जत हो,
चित्कार कर रही, श्वासों में।
हों, महारथी, गुरु, मौन जहां,
अन्याय-लिप्त रत् हों, स्वारथ।
सुच्याग्र, भूमि-हक मिले न जो,
भीषण हो वही, ‘महाभारत’।
विद्वत जनों को सादर समर्पित एवं अभिनंदन...….
महेन्द्र राय ✍️
पूर्व प्रवक्ता अंग्रेजी, आजमगढ़।
0 Comments