ये हैं गरीब ‘अनजान-उदधि’,
इनकी ‘अनजान, गुफाओं’ में।
हैं छिपे हुए, अनमोल रत्न,
भर देंगे प्रभा, दिशाओं में।
ये हैं ‘कानन अनजान’, भरे,
हंसते, खिलखिला ‘प्रसूनों’ से।
इनकी कर सदा, उपेक्षा हम,
वंचित हो गए, नमूनों से।
हो सकी नहीं ‘प्रतिभा’, विकसित,
खा मार, गरीबी-झोकों से।
शोषण अनवरत हुआ, इनका,
‘संभ्रांत’-जनों की नोकों से।
इनमें हैं, ‘तुलसी-सूर’ छिपे,
हैं ‘मिल्टन’ और ‘शेक्सपीयर’।
हैं ‘हैंम्पडेन’, हैं ‘क्रोमवेल’,
हैं ‘कालिदास’, ‘भवभूति’, अमर।
‘चाणक्य’ यहां, हैं ‘चंद्रगुप्त’,
‘धन्वंतरि’, ‘आंइन्स्टीन’ यहां।
हैं ‘रुसो’ और ‘मैक्समूलर’,
‘न्यूटन’ की भारी भीर, यहां।
यदि इनकी ‘अनुपम मेधा’ को,
शिक्षण-सम्मान हुआ होता।
तो सारी ‘धरा, स्वर्ग’ होती,
खुशियों का गान, हुआ होता।
सबकी सुविधा, अपहरण किए,
पा शक्ति, प्रशंसा पा, झूठी।
‘पत्थर की मूर्ति’, बना अपनी,
तुमने सबकी सुविधा, लूटी।
ये सारी, सुविधा-शक्ति और,
ऐश्वर्य-भोग, सब सुन्दरता।
यह अहंकार, सब मान-शान,
सत्ता-गौरव की, तत्परता।
ये हो जायेंगी, भेंट सकल,
‘श्मशान-जगत’ की रानी को।
यह विना भेद करती भक्षण,
हों ‘रंक’, ‘राव’ या ‘रानी’ को।
विद्वत जनों को सादर समर्पित एवं अभिनंदन...…
महेन्द्र राय
पूर्व प्रवक्ता अंग्रेजी, आजमगढ़।
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