बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण मानवजाति की सेवा करना ही धर्म है!


(1) भारत जैसी एकता की मिसाल विश्व के किसी अन्य देश में नहीं पायी जाती :- भारतीय संस्कृति व सभ्यता विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति व सभ्यता है। इसे विश्व की सभी संस्कृतियों की जननी कहा जाता है। भारत ‘अनेकता में एकता’ के सूत्रपात से बंधा एक ऐसा देश है, जहाँ लगभग 1400 बोलियों तथा औपचारिक रूप से मान्यता प्राप्त 22 भाषााओं वाले विभिन्न सम्प्रदायों, जातियों और धर्मों के लोग एक साथ रहते हैं। भारत में प्रांत और प्रदेश के अनुसार विविधतायें तो अवश्य पायी जाती हैं, लेकिन इसके बावजूद भारत जैसी एकता की मिसाल विश्व के किसी अन्य देश में नहीं पायी जाती। वास्तव में भारतीय संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं की जो विरासत हमें मिली है वो किसी भी अन्य देश के नागरिकों को प्राप्त नहीं है। इतिहासकार विंसेंट स्मिथ के शब्दों में, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि भारत में भौगोलिक विविधता और राजनीतिक विशिष्टता से कहीं अधिक गहरे उसके अंदर की बुनियादी एकता है। यह एकता रंग, भाषा, वेश-भूषा, मत और संप्रदायों की विविधता से कहीं आगे हैं।’’

(2) भारत की प्रगति में तो हमेशा विश्व की प्रगति समाहित रही है :- 12 मई को देश के प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी ने राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए कहा था कि भारत की संस्कृति, भारत के संस्कार, उस आत्मनिर्भरता की बात करते हैं जिसकी आत्मा वसुधैव कुटुंबकम् (अर्थात पृथ्वी एक देश है तथा हम सभी इसके नागरिक है) में सन्निहित है। भारत जब आत्मनिर्भरता की बात करता है, तो आत्मकेंद्रित व्यवस्था की वकालत नहीं करता। भारत की आत्मनिर्भरता में संसार के सुख, सहयोग और शांति की चिंता होती है। जो संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम् - जय जगत में विश्वास रखती हो, जो जीव मात्र का कल्याण चाहती हो, जो अपनी आस्था में ‘माता भूमिः पुत्रो अहम् पृथिव्यः’ की सोच रखती हो जो पृथ्वी को मां मानती हो, वो संस्कृति, वो भारत भूमि, जब आत्मनिर्भर बनती है, तब उससे एक सुखी-समृद्ध विश्व की संभावना भी सुनिश्चित होती है। भारत की प्रगति में तो हमेशा विश्व की प्रगति समाहित रही है। भारत के लक्ष्यों तथा कार्यों का प्रभाव सारे विश्व के कल्याण पर पड़ता है।

(3) धर्म का उद्देश्य मानव जाति को एक सूत्र में जोड़ना है, तोड़ना नहीं :- ईसा की मृत्यु के 564 वर्ष के बाद के सभी युद्ध धर्म के नाम पर लड़े गये हैं। किन्तु इतिहास इस बात का साक्षी है कि धर्म के नाम पर लोगों ने केवल अपनी प्रभुता को स्थापित करने के लिए तथा अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर धर्म युद्धों की रचना की। वास्तविकता यह है कि मानव सभ्यता के पिछले 5000 वर्षों के इतिहास में केवल महाभारत तथा राम-रावण के युद्ध ही धर्म युद्ध थे और वे समाज में ईश्वरीय सभ्यता स्थापित करने के लिए लड़े गये थे। मोहम्मद साहेब को भी धर्म युद्ध करना पड़ा था। उसके बाद जितने भी युद्ध धर्म के नाम पर लड़े गये उनमें से कोई भी युद्ध ईश्वरीय सभ्यता की स्थापना करने के लिए नहीं वरन् धार्मिक विद्वेष उत्पन्न कर साधारण लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर अपनी प्रभुता स्थापित करने के लिए ही लड़े गये।  

(4) धर्म शाश्वत है या परिवर्तनीय? : परमात्मा ने इस सृष्टि के प्रथम प्राणी ‘‘एडम और ईव (या मनु एवं शतरूपा) के धर्म (कर्त्तव्य) को निर्धारित करते हुए आज्ञा दी कि देखो ‘‘एडम एवं ईव’ तुम्हारा धर्म (या कर्त्तव्य) होगा मेरी आज्ञाओं को जानना तथा उन पर चलना। और मेरा धर्म (या कर्त्तव्य) होगा कि जो व्यक्ति मेरी आज्ञाओं को पवित्र मन से भली-भांति जानकर उन पर चलेंगे उनका ‘कल्याण करूँगा अन्यथा विनाश करूँगा। परमात्मा ने इस सृष्टि के प्रथम प्राणी ‘‘एडम और ईव’’ को बताया कि मेरे और तुम्हारे दोनांे के धर्म (कर्त्तव्य) शाश्वत तथा अपरिवर्तनीय होंगे और कभी भी सृष्टि के अनन्त काल तक न तो मेरे धर्म (कर्त्तव्य) में कोई परिवर्तन होगा और ना ही तुम्हारे (मनुष्य) के धर्म (कर्त्तव्य) में। मेरा और तुम्हारा दोनों का धर्म (कर्त्तव्य) एक ही है बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण मानवजाति की सेवा करना।

(5) दूसरों का भला करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है :- रामायण हमें सीख देती है ‘परहित सरिस धर्म नही भाई, परपीड़ा नहीं अधमायी’। अर्थात दूसरों का भला करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है तथा किसी को दुख देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। या रामायण की चौपाई ‘सिया राम मय सब जग जानी करहु प्रणाम जोरि जुग पानि’ अर्थात मैं प्रत्येक पुरूष में भगवान राम तथा स्त्री में जगत जननी माँ सीता की आत्मा के दर्शन करूँ। यह ज्ञान इसी जन्म के लिए ही नहीं वरन् अनेक जन्मों के लिए काफी है। गीता का सार एक लाइन में ‘संसार के समस्त प्राणी के हित में रत हो जाना है’। यदि हम जाति-धर्म का भेदभाव करेेंगे तो पूरी गीता भी कठस्थ कर ले उसका कोई लाभ नहीं मिल सकता। बुद्ध ने ज्ञान दिया कि वर्ण व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है वरन् समता ईश्वरीय आज्ञा है। बाईबिल में अपने पड़ोसी को भी अपने जैसा प्रेम करने की बात कही गयी है। कुरान में लिखा है ‘ऐ खुदा सारी खिलकत को बरकत दे तथा सारे जहान का भला कर’। 

(6) सभी धर्मो की आधारशिला मानव मात्र की एकता है :- सभी महान अवतार मानवता की भलाई के लिए समय-समय पर युग की आवश्यकता के अनुसार संसार में आये हैं। सभी को इस बात को सहर्ष स्वीकारना चाहिए कि सभी धर्मो की आधारशिला मानव मात्र की एकता है और यदि हम संसार के हर इन्सान की भलाई में नहीं लगेंगे तो पूरी त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, गीता, गुरू ग्रन्थ साहिब पढ़ने का कोई लाभ नहीं होगा। गुरू नानक ने सीख दी कि ‘एक नूर से सब जग उपज्या’ अर्थात यह सारा जग एक परमात्मा से पैदा हुआ है। बहाउल्लाह ने शिक्षा दी कि अब समस्त प्राणी मात्र के बीच हृदय की एकता की जरूरत है। इसलिए हमें आज की बाल एवं युवा पीढ़ी के साथ ही आगे आने वाली पीढ़ियों के मन-मस्तिक में बचपन से ही इस बात का बीजारोपण करते हुए कि मानवता एक है, धर्म एक है तथा ईश्वर एक है, उन्हें सभी पवित्र पुस्तकों में दिये गये ज्ञान - राम की मर्यादा, कृष्ण का न्याय, बुद्ध की समता, ईशु की करूणा, मोहम्बद साहेब का भाईचारा, गुरू नानक का त्याग, बहाउल्लाह की हृदय की एकता का ज्ञान देकर उन्हें विश्व नागरिक के रूप में विकसित करना चाहिए।  

डा0 जगदीश गांधी

संस्थापक-प्रबन्धक

 सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ। 



Comments