यह सर्वविदित तथ्य है कि-किसी भी समाज के सर्वांगीण और सर्वोत्तम विकास के लिए सर्वश्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था सर्वाधिक आवश्यक आधारभूत तत्व है। समुचित शिक्षा द्वारा ही मनुष्य की अंतर्निहित क्षमताओं का सर्वोत्तम विकास होता हैं तथा मनुष्य के मन और मस्तिष्क के सभी कपाट खुलते जाते हैं। आधुनिक, वैज्ञानिक और समुचित शिक्षा द्वारा ही हर हृदय और मस्तिष्क में तर्क,बुद्धि,विवेक और प्रज्ञा का जागरण होता हैं तथा अज्ञानता, अंधविश्वास और अंधभक्ति मानव मन मस्तिष्क से निर्मूल होने लगती हैं। समुचित और सर्वोत्तम शिक्षा व्यवस्था द्वारा ही किसी राष्ट्र के लिए मनुष्य अपना समस्त रचनात्मक,सृजनात्मक और सकारात्मक योगदान सुनिश्चित करता है। बेहतर शिक्षा व्यवस्था द्वारा ही बेहतर जीवन जीने और बेहतर समाज बनाने के लिए आवश्यक साहस,सूझ-बूझ, समझदारी, सौन्दर्यबोध और समर्पण का भाव मनुष्य के अंदर उत्पन्न होता हैं। एक शिक्षाविद ने कहा है कि-एक राष्ट्र का निर्माण मिट्टी, गारे, वृक्ष, ओक, पत्थर चट्टानों और खनिज संसाधनों से नहीं होता बल्कि विद्यालयों में पढने, लिखने और सीखने वाले विद्यार्थियों द्वारा होता हैं। बहुविविध चुनौतियों के अनुरूप होनहार रत्नों को इन्हीं ज्ञान के मंदिरों में तराशा जाता है। इसीलिए आज विकास के नये-नये कीर्तिमान स्थापित करने वाले देशों ने सबसे पहले अपने समस्त नागरिकों के लिए सर्वश्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त और चाक-चौबंद किया। आज दुनिया में जितने भी विकसित देश है सभी देशों ने अपने देश के नागरिकों को बेहतरीन शिक्षा द्वारा शिक्षित-प्रशिक्षित कर ही अपने देश का विकास सुनिश्चित किया। प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से विपन्न और भूकम्प प्रभावित प्रशांत महासागरीय मेखला में स्थित जापान ने अपनी नवोदित युवा पीढ़ी को शिक्षित-प्रशिक्षित करने के लिए सर्वश्रेष्ठ निवेश और नियोजन किया। जिसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि-आज जापान अपने उर्जावान नागरिकों की प्रतिभा, दक्षता, क्षमता और उद्यमिता के बल पर स्वयं को अमेरिका के समानांतर एक आर्थिक महाशक्ति के रूप मे स्थापित करने में सक्षम हुआ है। प्रकारांतर से किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए उसके मानवीय संसाधनो का सुसंगठन और प्राकृतिक संसाधनों का सुनियोजन अत्यंत आवश्यक हैं। किसी भी देश का मानवीय संसाधन जितना सुविकसित सुशिक्षित कुशल और कुशाग्र होगा वह देश उतना प्रगति करेगा। इसलिऐ नागरिको का बेहतर शिक्षण-प्रशिक्षण प्राथमिक शर्त है। भारतीय आध्यात्मिक परम्परा के देदिप्यमान नक्षत्र और भारतीय दर्शन के वैश्विक व्याख्याता स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि- शिक्षा के द्वारा राष्ट्रमन का गठन होता हैं राष्ट्र के मेरुदंड का निर्माण होता हैं। शिक्षा पर आगामी पीढी का भविष्य निर्भर रहता हैं। जिस देश में शिक्षा की उपेक्षा होती हैं उसका भविष्य अंधकारमय हो जाता है। शिक्षा प्रणाली पर अपने विचार व्यक्त करते हुए स्वामी जी ने कहा था कि-" मस्तिष्क में अनेक प्रकार की अव्यवस्थित जानकारियाॅ भरी रहे तो वे जीवन भर कष्ट देती रहेगी। आज हमें ऐसी शिक्षा की जरूरत है, जो हमारे आने वाले जीवन को व्यवस्थित करें, जो हमें पुरुषार्थ प्रदान करें, जो हमारी शुभ प्रवृतिओ को सबल बनायें। इसलिये जो विषयवस्तु हमें सिखाई जाए उसे पूरी तरह से आत्मसात कर लेना चाहिए।"
जिस तरह किसी भूखे पेट की भूख मिटाने तथा स्वस्थ्य जीवन के लिए पोषण युक्त भोजन की आवश्यकता होती है उसी तरह स्वस्थ्य मस्तिष्क और समग्र मानसिक शक्तियों के विकास के लिए समुचित शिक्षण-प्रशिक्षण की खुराक आवश्यक है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि-स्वस्थ्य, समुचित, आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा के अभाव में समाज और राष्ट्र तर्कहीन, बुद्धिहीन, विवेकहीन अंधभक्ति से परिपूर्ण एक उन्मादी भीड में तब्दील हो जाता है। इसलिये आज लगभग सभी सभ्य,आधुनिक और लोकतांत्रिक देशों ने शिक्षा को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार कर लिया है।
चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, नागार्जुन और अश्वघोष जैसे ज्ञानियों-मनीषियों की तपोभूमि और नालन्दा, बोध गया, तक्षशिला और विक्रमशिला जैसे विश्व विद्यालयों के कारण ही प्राचीन भारत को विश्व गुरु का दर्जा प्राप्त था। विश्व में ज्ञान गुरू के नाम से विख्यात भारत को स्वाधीनता उपरांत शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार करने में लगभग तिरसठ साल लग गए। डाक्टर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संचालित संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार सरकार ने वर्ष 2010 में शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने का ऐतिहासिक निर्णय लिया। परन्तु शिक्षा को मौलिक अधिकार की वास्तविक परिणति के लिए आधारभूत संरचनाओं और बुनियादी सुविधाओं का विकास करना आवश्यक है। परन्तु उत्तर प्रदेश सहित लगभग सभी बिमारू राज्यों में आधुनिक, वैज्ञानिक और इस दौर की चुनौतियों के अनुरूप बेहतर और गुणवत्तापरक शिक्षा के लिए आवश्यक आधारभूत संरचनाओं और बुनियादी साज-सज्जा और सुविधाओं का पूरी तरह अभाव है। विश्व की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था सस्ते दर पर जबतक उपलब्ध नहीं कराई जायेगी तबतक शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा महज कागजी और छलावा हैं। इसके लिए सर्वप्रथम देश के कुल वार्षिक बजट का लगभग दस प्रतिशत व्यय करना होगा। परन्तु दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति यह है कि-हमारे देश में कुछ प्रांतीय सरकारों को छोड़ दिया जाए तो केंद्र और राज्यों की सरकारें अपने कुल बजट का शिक्षा पर व्यय मुश्किल से 2 से 3 प्रतिशत तक करती हैं। शिक्षा पर व्यय की दृष्टि से हमारे देश की स्थिति श्रीलंका से भी बदतर है। पडोसी देश श्रीलंका अपने कुल वार्षिक बजट का लगभग दस प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करता है। जबकि-श्रीलंका दुनिया के सबसे खूंखार आतंकवादी संगठन लिट्टे से लगातार लडता जूझता रहा। शिक्षा पर समुचित व्यय न होने के कारण सरकारी और अर्द्ध सरकारी शिक्षण संस्थानों में आधारभूत संरचनाओं का पूरी तरह अभाव है। पठन-पाठन के लिए पर्याप्त कक्षाओं का अभाव उत्तर भारतीय विद्यालयों में साफ-साफ देखा जा सकता है। कोठारी आयोग सहित शिक्षा के सुधार के लिए बनाये गये विभिन्न आयोगों ने जो शिक्षक-छात्र अनुपात (चालीस छात्रों पर एक शिक्षक) निर्धारित किया है, उसका पूरी तरह अभाव पाया जाता हैं। उत्तर प्रदेश सहित समस्त बिमारू राज्यों में प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा की और भी बदतर स्थिति है। कहीं-कहीं पर तो चार-चार कक्षाओं के लिए महज एक दो शिक्षक ही नजर आते हैं।
जाति धर्म और भावनात्मक मुद्दो के रंग में पूरी तरह सराबोर भारतीय राजनीति में आम आदमी के लिए बेहतर शिक्षा विगत कई चुनावों से प्रमुख मुद्दा नहीं बन पाती हैं। जिन निर्वाचित सांसदों, विधायकों और अन्य निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी थी कि-वह अपने क्षेत्र की समस्त सरकारी संस्थाओं सहित शिक्षण की गम्भीरता से निगरानी करेंगे। इन समस्त जनप्रतिनिधियों ने निगरानी करने के बजाय धन उगाही की दृष्टि से अपने-अपने विद्यालय और महाविद्यालय खोल लिए। सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षक संघ और समाजवादी चिंतन धारा के नेताओं ने अपने मंचों से आम आदमी के लिए बेहतर शिक्षा के कई नारे गढे और लगाए जैसे "केरल हो या राजस्थान, सबको शिक्षा एक एक समान", "निर्धन हो या हो धनवान, सबको शिक्षा एक समान", "मिलजुलकर सब साथ चलेंगे, कृष्ण सुदामा साथ पढेंगे "। परन्तु आम जनमानस के पक्षधर ये समस्त नारे नब्बे के दशक तक आते-आते राजनीतिक गलियारों से ओझल हो गये। अब जमीनी स्तर पर शिक्षा व्यवस्था का लगभग बाजारीकरण हो चुका है। स्वाधीनता उपरांत स्वाधीनता आंदोलन के आदर्शों से अनुप्राणित नेताओं ने समाज से चन्दा-चुटकी लेकर आम जनमानस के लिए सस्ते दर शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों को खुलवाने का सराहनीय प्रयास किए। आज वही हमारे निर्वाचित जनप्रतिनिधि सरकारी और अर्द्ध सरकारी शिक्षण संस्थानों की तरफ फूटी आँखों से भी नहीं देखते हैं। इधर सांसदों और विधायकों में कमीशनखोरी की प्रवृत्ति लगभग महामारी का रूप धारण कर चुकी हैं। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि-सांसद और विधायक अपनी सांसद और विधायक निधि का अधिकांश हिस्सा कमीशनखोरी के चक्कर में निजी शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों को आवंटित कर देते हैं जबकि सरकारी और सहायता प्राप्त शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों को फूटी कौड़ी भी नसीब नहीं होती हैं।
अगर संविधान की भावना के अनुरूप शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में वास्तविकता के धरातल पर उतारना है तो केंद्र और राज्यों की सरकारो को अपने कुल वार्षिक बजट का लगभग दस प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करने का साहस दिखाना होगा। इसके साथ ही साथ राजनीतिक दलों सहित जनप्रतिनिधियों निति निर्धारको और शिक्षा जगत से जुड़े बुद्धिजीवियों के अंदर यह समझदारी विकसित होना आवश्यक है कि- रोटी कपड़ा और मकान की तरह शिक्षा भी आम आदमी की बुनियादी ज़रूरत है। समस्त राजनीतिक दलों को शिक्षा के मौलिक अधिकार की वास्तविक परिणति के लिए कुल वार्षिक बजट का लगभग दस प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करने का मुद्दा प्राथमिक मुद्दा बनाना होगा। इसके साथ आम जनमानस को इन्हीं बुनियादी मुद्दों के अनुरूप अपने मतदान आचरण और व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा।
मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता
बापू स्मारक इंटर कांलेज दरगाह मऊ।
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