बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय, जो दिल ढूँढा आपना मुझसा बुरा न होय.....

अंधविश्वासो पाखंडो और मध्ययुगीन बर्बरता पर अपनी रचनाओं के माध्यम से करारा प्रहार करने वाले महात्मा कबीर ने उपरोक्त पंक्तियाँ अनायास या  फक्कडी मिजाज में नहीं कही थी बल्कि यह कबीर का गम्भीर,गहन और गहरा शोध था। इन पंक्तियों का शाब्दिक अर्थ यह है कि-अगर स्वयं के व्यक्तित्व, कृतित्व और चरित्र का निष्पक्षता, निरपेक्षता और साक्षी भाव से अवलोकन करें तो पता चलता है कि-हमारे मन मस्तिष्क और मिजाज में अनगिनत दुर्गुण और दुर्विकार हिचकोले लेते रहते हैं और हमारे अन्दर वो समस्त दुर्गुण और दुर्विकार समाधिस्थ है जो हम दूसरों के अन्दर कुचेष्टा वश देखना चाहते हैं। मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति में दूसरे की आवश्यक आवश्यकताओं का भी गला घोंट देता है। अपने झूठे अंहकार की रक्षा के लिये दूसरे लोगों की मान मर्यादा और गरिमा को खंडित कर देता है। अगर मनुष्य अपने व्यक्तित्व  कृतित्व और चरित्र को ईमानदारी से  खोजने और खंगालने का प्रयास करे तो उसके अंदर पाशविकता कूट-कूट कर भरी है। प्रकारांतर से महात्मा कबीर द्वारा उद्बोधित पंक्तियाँ मनुष्य को निरंतर आत्मचितंन, आत्म-मंथन, आत्म अवलोकन और आत्मविश्लेषण करने का संदेश देती है। प्रत्येक  मनुष्य अगर दूसरे के व्यक्तित्व, कृतित्व और चरित्र का चीर-फाड़ करने के बजाय निरंतर स्वयं से साक्षात्कार करता रहे तो वह सहज, सरल, सफल और सुन्दर जीवन व्यतीत कर सकता हैं। 

मनुष्य के मन मस्तिष्क में पाशविक प्रवृत्तियों के साथ ही साथ देवत्व की प्रवृत्तियाॅ भी निरंतर मनुष्य को दया करूणा परोपकार सहानुभूति और सद्भावना की तरफ प्रेरित करती रहती है। आत्म चिंतन से मनुष्य अपने अंदर छिपे हुए ईश्वरत्व और ईश्वरीय चेतना को जागृत कर सकता है तथा स्वयं को जान पहचान सकता हैं। मनुष्य स्वयं के साक्षात्कार के साथ ही साथ निरंतर साधनाओं से अपने अन्दर समाहित समस्त पाशविक प्रवृत्तियों दुर्गुणो दुर्विकारो को तिरोहित कर अपने व्यक्तित्व में विराटता ला सकता हैं।

फक्कड स्वभाव के अनपढ़ कबीर भक्ति आंदोलन की परम्परा के उन विचारकों में आते हैं जिनका विचार वैज्ञानिक, तार्किक और इस दौर के लिए भी प्रासंगिक है। इस दौर में भी कबीर के विचारो को आत्मसात करते हुए आचरण में उतारने का प्रयास किया जाए तो एक नैतिक मूल्यों पर आधारित मर्यादित समाज का निर्माण करने में हम सफल हो सकते हैं सृजनकर्ता ने सृष्टि में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में किसी सर्वश्रेष्ठ प्रयोजन की सिद्धि के लिए भेजा है। इसलिए दूसरे के दुर्गुणो पर ध्यान देना अपनी उर्जा अपना समय अपव्यय करने के समान है इसके बजाय मनुष्य अपनी अंतर्निहित क्षमताओं और आंतरिक शक्तियों पर ध्यान संकेन्द्रित करने का प्रयास करें तो आत्मोन्नति, आत्मउत्थान और आत्मोत्कर्ष का चरमोत्कर्ष प्राप्त कर सकता है। अगर प्रत्येक पूरी उर्जा पूरे उत्साह और पूरी शक्ति के साथ  व्यक्ति आत्मोत्कर्ष और आत्म उत्थान के लिए सचेतन प्रयासरत रहे तो यह संसार स्वर्गीक कल्पनाओं के अनुरूप सुन्दर और सुखद बन जायेगा। 


मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता 

बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ। 







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