बाग़ी बलिया का सूरज


(बलिया — बगावत की जननी, बलिदान की धरती)

सुनो कहानी बलिया की, गाथा रण की शान की,

जहाँ मिट्टी भी महक उठी आज़ादी के गान की,

अंग्रेज़ी जंजीरों को तोड़ फेंकने के मान की,

सपथ उठी हर हथेली भारत माँ के सम्मान की,

लहू से लिखी गाथा में अमर विश्वास था,

गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!


अगस्त का वह दिन था, जब गंगा-तट लहराया,

बलिया के हर गाँव ने स्वराज का दीप जलाया,

चौक-चौराहों पर जनसैलाब उमड़ आया,

हर दिशा में “अंग्रेज़ो, भारत छोड़ो” का नारा छाया,

आँधियों से भी तेज़ जो क्रांति का उल्लास था,

गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!


छात्रों ने पुस्तक छोड़ी, खेतों ने हल थाम लिया,

मजदूरों ने औज़ार रख, क्रांति का बिगुल थाम लिया,

माताओं ने आरती संग रण-पथ का स्वागत किया,

बेटों ने कफ़न सिर बाँधा, हँसते-हँसते प्राण दिया,

हर चेहरे पर विजय का ही उल्लास था,

गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!


थाने, कोठी, कचहरी — सब जनता ने जीत लिए,

अंग्रेज़ी फरमानों को माटी में रौंद दिए,

नौ दिन तक स्वराज का परचम ऊँचा लहराया,

जनता ने खुद शासन कर इतिहास सुनाया,

हर दिल में यह स्वराज का ही सुवास था,

गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!


बाबू चित्तरंजन, मुरली-मनोहर, वीर जगन्नाथ,

खड़े हुए रणभूमि में बनकर जनता की आहट साथ,

गोलियों की बौछारें भी रोके न उनका पथ,

डटे रहे हर जवान, चाहे जितना कठिन पथ,

बलिदान में ही उनका पूरा विश्वास था,

गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!


तोपों की गड़गड़ाहट में भी गीत स्वराज के गाए,

लाशों की कतारों में भी दीपक आशा के जलाए,

माँ ने बेटे की चिता पर रोते-रोते गीत सुनाए,

“मेरा लाल गया, पर भारत में सौ सूरज उग आए।”

हर अश्रु में विजय का ही आभास था,

गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!


अंग्रेज़ी सत्ता काँप उठी नौ दिनों की आग से,

बर्बरता के वार चले, पर जोश न टूटा राग से,

हज़ारों घर सूने हुए, पर चूल्हे जले त्याग से,

रणभूमि में खड़े रहे हिम्मत और उजाले से,

हर आँगन में बलिदान का इतिहास था,

गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!


गंगा-घाट से लेकर सिवान तक बिगुल बजे,

बलिया के वीरों के आगे अंग्रेज़ी पाँव सजे,

धरती बनी गवाह, आकाश ने जय-घोष रचे,

हर लहू की बूंद में स्वतंत्रता के रंग बहे,

हर पग में क्रांति का ही उल्लास था,

गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!


बलिया की गलियों में वह दिन आज भी याद है,

जहाँ हर ईंट, हर पेड़ आज़ादी का फरमान है,

नौ दिन का स्वराज ही भारत की पहचान है,

यह मिट्टी अब भी गाती — “यह बलिदान महान है।”

हर धड़कन में आज़ादी का ही विश्वास था,

गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!


आज जब बलिदान-दिवस पर दीप जलाए जाते हैं,

बलिया के वीरों को प्रणाम किए जाते हैं,

उनकी गाथाएँ पीढ़ियों को सुनाई जाती हैं,

और क्रांति की वह लौ फिर से जगाई जाती है,

हर मन में स्वराज का ही सुवास था,

गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!


बलिया, तूने सिखाया कि हिम्मत कैसे जगानी है,

कुर्बानी के बिना स्वतंत्रता कहाँ आनी है,

तेरा सूरज आज भी भारत के गगन में पानी है,

तू ही आज़ादी की अमर कहानी है,

हर युग में तेरा अमिट इतिहास था,

गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!


✍️अभिषेक मिश्रा, बलिया 




Post a Comment

0 Comments