जल संकट का संकेत है निरन्तर घटता भू- जल स्तर : डा० गणेश पाठक


भू-जल संरक्षण सप्ताह 16 - 22 जुलाई पर विशेष :-    

बलिया। भू-जल संरक्षण सप्ताह 16-22 जुलाई के अवसर पर अमरनाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय दूबेछपरा के पूर्व प्राचार्य एवं समग्र विकास शोध संस्थान के सचिव पर्यावरणविद् डा० गणेश पाठक ने एक भेंटवार्ता में बताया कि पृथ्वी तल के नीचे स्थित किसी भू-गर्भिक स्तर की सभी रिक्तियों में विद्यमान जल को भू- जल कहा जाता है। अपने देश में लगभग 300 लाख हेक्टोमीटर भू-जल उपलब्ध है, जिसका 80 प्रतिशत तक हम उपयोग कर चुके हैं। यदि भू-जल विकास स्तर की दृष्टि से देखा जाए तो अपना देश 'धूमिल संभावना' क्षेत्र के अन्तर्गत आ गया है, जो शीघ्र ही 'संभावना विहीन' क्षेत्र के अंतर्गत आ जाएगा। इस तरह निकट भविष्य में अपने देश में घोर जल संकट उत्पन्न हो सकता है।

यदि उत्तर-प्रदेश में भू- जल की स्थिति को देखा जाए तो स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। इसका कारण है कि उत्तर प्रदेश में भू-जल का वार्षिक पुनर्भरण 68,757 मिलियन घनमीटर, शुद्ध दोहन 49483 मिलियन घनमीटर और भू-जल विकास 72.17 प्रतिशत है, जबकि सुरक्षित सीमा मात्र 70 प्रतिशत है। वाटर एड इण्डिया एवं अन्य स्रोतों के अनुसार 2000 से 2010 के मध्य भारत में भू-जल दोहन 23 प्रतिशत बढ़ा है।

विश्व में प्राप्त कुल भू-जल का 24 प्रतिशत अकेले भारत उपयोग करता है। इस तरह भू-जल उपयोग में विश्व में भारत का प्रथम स्थान है। फिर भी अपने देश में एक अरब लोग पानी की कमी वाले क्षेत्रों में रहते हैं।

बलिया सहित पूर्वांचल में भू-जल की स्थिति :-

बलिया सहित पूर्वांचल के जिलों में भू-जल की स्थिति को देखा जाए तो आजमगढ़, मऊ, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, वाराणसी, संतरविदासनगर, मिर्जापुर एवं सोनभद्र जिलों में शुद्ध पुनर्भरण जल क्षमता क्रमशः 1329, 483, 890, 1243, 1251, 717, 486, 400, 478 एवं 211 मिलियन घनमीटर, शुद्ध जल निकास क्षमता क्रमशः 865, 338, 589, 1106, 856, 273, 419, 370, 361एवं 91 मिलियन घनमीटर तथा भू-जल विकास स्तर क्रमशः 65.70, 69.90, 66.24, 88.98, 68.45, 38.02, 86.28, 92.25, 62.38 एवं 43.12 प्रतिशत है। इसके अनुसार आजमगढ़, मऊ, बलिया एवं गाजीपुर जिले धूमिल संभावना क्षेत्र के अंतर्गत आ गए हैं, जबकि जौनपुर, वाराणसी एवं संतरविदासनगर जिले संभावना विहीन क्षेत्र के अन्तर्गत आ गए हैं। यानि कि इन जिलों में भू-जल दोहन को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए। धूमिल संभावना क्षेत्र वाले जनपदों में भी जल उपयोग को संतुलित किया जाना चाहिए। इन सभी जनपदों में जलविदोहन करना प्रकृति के साथ खिलवाड़ है।

भू-जल में गिरावट के प्रमुख कारण :- 

वर्षा वितरण में असमानता एवं वर्षा में कमी होना, अधिकांश क्षेत्रों में सतही जह का अभाव, पेयजल आपूर्ति हेतु भू-जल का अधिक दोहन, सिंचाई हेतु भू- जल का अत्यधिक दोहन, उद्योगों हेतु भू-जल का अत्यधिक दोहन आदि भू-जल में गिरावट के प्रमुख कारण है।

भू-जल की कमी से उत्पन्न समस्याएं :-

भू-जल स्तर का निरन्तर नीचे की तरफ खिसकना, भू-जल में प्रदूषण की समस्या में वृद्धि, पेयजल आपूर्ति की समस्या में वृद्धि, सिंचाई जल की कमी से कृषि पर प्रभाव,भू-जल की गुणवत्ता में कमी, भू-जल का अत्यधिक लवणतायुक्त होना, पेयजल आपूर्ति का घोर संकट उत्पन्न होना, भू-जल की कमी एवं जल का प्रदूषित होना, आबादी वाले क्षेत्रों में जल आपूर्ति की कमी होना आदि भू-जल की कमी से उत्पन्न समस्याएँ हैं।

भू-गर्भ जल दोहन रोकने हेतु उपाय :-

भू-जल समस्या का एकमात्र उपाय भू-जल में हो रही कमी को रोकना है। प्रत्येक स्तर पर भू-जल के अनियंत्रित एवं अतिशय दोहन और शोषण एवं उपयोग पर रोक लगाना आवश्यक है। पुराने जल स्रोतों को पुनर्जीवित करना आवश्यक है। जल ग्रहण क्षेत्रों में अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना अति आवश्यक है, जिससे कि प्राकृतिक रूप से जल का पुनर्भरण होता रहे। बचत प्रक्रिया को अपनाना होगा। जल बर्बादी को रोकना होगा। विकल्प की खोज करनी होगी। सुरक्षित एवं संरक्षित उपयोग करना होगा। जल को प्रदूषण से बचाना होगा।वर्षा जल का अधिक से अधिक संचयन करना होगा। जल संपूर्ति की सुरक्षित एवं संचयित प्रक्रिया अपनानी होगी। भूमिगत जल को चिरकाल तक स्थायी रखना होगा। कुल वर्षा जल का कमसे कम 31 प्रतिशत जल धरती के अंदर प्रवेश कराने की व्यवस्था करनी होगी। इसके लिए वर्षा जल संचयन (रेन वाटर हार्वेस्टिंग) को बढ़ावा देना होगा।




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