दुआओं से जन्मी बेटी
भीख की ज़िंदगी जीती रही
देते सहारा तो मान बढ़ाती वो भी घर का
हर पल दुत्कार उसे, तुमने घर का एक चिराग बुझा दिया
वो कमजोर नही, मजबूर ही है बस
अपने ही घर मे मजदूर ही है बस
काटती है धान, पालती है गाय-भैंस
पकाती है दोनो वक्त का भोजन
और खाती है ढ़ेर सारी गालियाँ
लालटेन की रौशनी मे वो जीवन का उजाला खोजती है
गाँव की सड़क से आजादी का रस्ता पूछती है
पूछती है सवाल धर्मग्रंथो से
अगर लक्ष्मी और देवी का स्वरुप है बेटियां तो
वो ही घर का श्राप क्यूँ है?
अगर पुज्यनीय होती है बेटियाँ
तो शरीर और अन्तर्मन पर ये घाव के निशान क्यूँ है?
ईश्वर का आशीर्वाद होते है बच्चे तो
बेटियाँ अनचाही औलाद क्यूँ है?
रंजना यादव ✍️
बलिया (उ.प्र.)
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