अकस्मात मन में आया एक विचार
लोग हो गये हैं सोच के शिकार,
नित बदल रहा ये समाज
क्या पतन का हो गया आगाज़?
जँहा, शिक्षा बन गया व्यापार,
नारी हो रही शर्मशार,
वृद्ध हो गये लाचार,
लोग भूले गीता का शार।
ना अर्थ रहा निर्वाह के संवाद का,
तासीर है बातों में विवाद का,
अब जोर है आतंकवाद का,
यही सोच है समाज का।
अब, परोपकार किताबों में सिमट गया,
समझ पैसे पर भटक गया
प्रकृति हाथों से फिसल गया,
संसार प्रगति की ओर बढ़ गया?
पक्षी हैं बेटियां, पिजडा बना डाला,
शेर हैं बेटे इस संज्ञा का हवाला,
स्व ने, समाज को इस कदर बदल डाला,
कि सोच ने, इंसान को, शिकार, और शिकारी बना डाला।।
Pratima Singh ✍️
(PGT MATH LFCS)
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