*कर्म का मर्म*

किसी समय एक प्रजा हितैषी राजा था। वह नियमित रूप से वेश बदलकर निकलता और प्रजा के हालचाल जानता। प्रजा भी राजा के प्रति बहुत स्नेह व सम्मान रखती थी। प्रजा का कोई संकट, कोई समस्या या आवश्यकता राजा से न छिपी रहती। 

एक दिन राजा ने विचार किया कि सीमा से सटे गांवों की स्थिति को देखा जाए। वह अपने एक सहायक को लेकर घोड़े पर रवाना हुआ। दो-चार गांवों में राजा ने भ्रमण किया, वहां की समस्याओं को समझकर सहायक को समाधान हेतु दिशा-निर्देश दिए। फिर वह अगले गांव की ओर चला। रास्ते में राजा ने देखा कि एक बुजुर्ग व दुबला-पतला लकड़हारा पसीने में नहाया हुआ लकडिय़ां काट रहा था। राजा को उस पर दया आ गई। राजा उससे बात करने जा ही रहा था कि अचानक उसे पास की चट्टान में कुछ चमकता नजर आया। पास जाने पर पाया कि चट्टान की दीवारों में कई कीमती हीरे धंसे हुए थे। राजा यह सोचकर हैरान हुआ कि पास ही लकड़ी काट रहे लकड़हारे की दृष्टि इन हीरों पर क्यों नहीं पड़ी? वह लकड़हारे के पास गया और उससे प्रश्न किया, बाबा ! आपके सामने इतने हीरे पड़े हैं। यदि इनमें से एक हीरा भी आप बेच देंगे तो जिंदगी भर काम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्या आपने इन हीरों को नहीं देखा? लकड़हारे ने बिना अपना हाथ रोके कहा, बेटा ! ये हीरे तो वर्षों से देख रहा हूं किंतु मैं सोचता हूं कि ईश्वर ने मुझे हाथ-पैर परिश्रम करने के लिए दिए हैं न कि बैठकर खाने-पीने के लिए। हीरों की आवश्यकता उन्हें होगी, जिनका पुरुषार्थ समाप्त हो गया हो। मैं तो भगवान की दया से स्वस्थ हूं और अपना काम कर सकता हूं। 

राजा ने लकड़हारे की कर्मशीलता को नमन किया और आगे की राह ली। मेहनत की कमाई सच्चा सुकून देती है। अत: यथाशक्ति पुरुषार्थ से ही आजीविका कमानी चाहिए।


डॉ0 बी0 के0 सिंह

दन्त चिकित्सक

ओम शांति डेण्टल क्लिनिक

इंदिरा मार्केट, बलिया। 





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