सम्पूर्ण विश्व में विश्व गुरु के नाम से विख्यात भारत में क्षीण होता गुरुओं का गुरूत्व : मनोज कुमार सिंह


एक माँ अपने बच्चे को कलेजे का टुकडा मानतीं हैं उसके ऊपर जान छिडकती हैं परन्तु वही बच्चा जब हद से ज्यादा शरारत करने लगता है तो वही माॅ अपने बच्चे को नालायक, निट्ठल्ला, निकम्मा और कुवंशी जैसे-शब्दों से कोसती है। यह सर्वविदित तथ्य है कि-आज भी उस माँ के कलेजे के टुकड़े को जिसको वह नालायक बनाती हैं उसे लायक बनाने की उस निठल्ले और निकम्मे को कामयाब बनाने का और उस कुवंशी को सुवंशी बनाने की सुनिश्चिंतता अगर सम्पूर्ण ब्रहमांड में कोई दे सकता हैं तो वह केवल और केवल माँ सरस्वती के मंदिर के साधक, उपासक, गुरु वशिष्ठ, गुरू विश्वामित्र, गुरु कृपाचार्य, गुरू संदीपनी, और गुरु द्रोणाचार्य की परम्परा के ध्वजवाहक ही दे सकते हैं। अगर गुरु द्रोणाचार्य नहीं होते तो अर्जुन जैसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं होते। यह आज भी खोज, विचार और शोध का विषय हैं कि-गुरु-शिष्य परम्परा का आरम्भ कब हुआ परन्तु इस महान गुरु-शिष्य ने भारतीय वसुंधरा पर अनगिनत प्रतिभाओं को जन्म दिया और उन प्रतिभाओं के पराक्रम की खुशबू से सम्पूर्ण भारतीय इतिहास का पन्ना-पन्ना आज भी महक रहा है। महान गुरु परम्परा की कोख़ से उत्पन्न शूरवीरों के व्यक्तित्व और कृतित्व से हर भारतवासी स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है। गुरुओं की इसी महत्ता और महिमा को ध्यान में रखते हुए मध्ययुगीन महान क्रांतिकारी कवि कबीर ने कहा था कि- "गुरु गोविन्द दोनों खडे काके लागू पाये, बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताऐ"। यह दोहा महात्मा कबीर का फक्कड़पन नहीं था बल्कि कबीर का सर्वश्रेष्ठ शोध था। क्योकि-गोविन्द तो जिस साॅचे ढाॅचे और खाॅचे में व्यक्ति के व्यक्तित्व को ढालता हैं धरती पर उसी के अनुरूप पटक देता है परन्तु उसकी अंतर्निहित क्षमता के अनुसार उसको सर्वश्रेष्ठ आकृति और आकार गुरु ही प्रदान करता है। इसके साथ उनकी क्षमताओं का क्षितिज छूने की शक्ति भी सम्पूर्ण ब्रहमांड में महज गुरु ही प्रदान करता है।

गुरु की महिमा और महत्ता अकारण नहीं है क्योंकि गुरु ही इस बसुन्धरा का दुर्लभ प्राणी है जो लाखों करोड़ों लोगों की ऑखों के सपनों को साकार करता है या मूर्त रूप प्रदान करता है। बच्चे के जन्म लेते ही हर घर-ऑगन और माॅ-बाँप बच्चे को लेकर तरह तरह के सपने संजोने लगते हैं। मेरा बेटा डाक्टर बनेगा, मेरा बेटा इंजीनियर बनेगा मेरा बेटा कलेक्टर बनेगा करोड़पति बनेगा इत्यादि इत्यादि। इस बाजारबादी दौर में माँ-बाप की ऑखों में बाजारबादी चतुराईयो से परिपूर्ण नवरत्नो के सपने भी तैरने लगे हैं। आज कुछ माॅ बाँप यह भी स्वप्न देखते हैं कि- मेरा बेटा हर्षद मेहता या विजय माल्या या नीरव मोदी बनेगा। यह सर्वविदित सच्चाई है कि माँ बाप सपने तो देख सकते है परन्तु उन सपनों को अपनी साधना और तपस्या से साकार करने का कार्य गुरु ही करता है। इकलौता गुरु ही वह प्राणी है जो दूसरों की ऑखों के सपनों को साकार करने के लिए अपना सर्वस्व और सर्वश्रेष्ठ न्योछावर कर देता है। 

जब-जब भारतीय वसुंधरा गहरे संकट में आई तब-तब माॅ सरस्वती के मंदिर के सच्चे साधकों कुशाग्र और दूरदर्शी गुरुओं ने अपनी साधना तपस्या और शिक्षा से अपनी शिष्य परम्परा के ऐसे नवरत्नो को उत्पन्न किया जिन्होंने अपने पराक्रम और प्रतिभा से भारतीय वसुंधरा की रक्षा की अपितु भारतीय शौर्य और पराक्रम से सम्पूर्ण विश्व को आश्चर्यचकित किया। जब विश्व विजेता बनने की चाह रखने वाले सिकंदर के घोड़ों के टापो से यह धरती थर्राने लगी तथा मगध साम्राज्य का राजा पूरी तरह विलासिता में डूब चुका था। नंद वंश का तत्कालीन राजा भरी दुपहरी में दरबार में मदिरापान कर नर्तकियों का नृत्य देखने में तल्लीन था। ऐसी विषम परिस्थिति में तक्षशिला विश्वविद्यालय का एक साधारण सा आचार्य जो नंद वंश के राजाओं द्वारा अपमानित तिरस्कृत और बहिष्कृत हुआ था वह अपनी असाधारण शैक्षणिक प्रतिभा और कौशल का परिचय देते हुए एक ऐसे शिष्य को शिक्षित प्रशिक्षित करता है जो न केवल सिकन्दर के सेनापति और उत्तराधिकारी सेल्यूकस को बुरी तरह पराजित करता है बल्कि ऐसे पराक्रम का परिचय देता है कि- लगभग तीन सौ वर्षों तक भारत वर्ष पर ऑख उठाकर देखने का साहस किसी भी तरह के बाह्य आक्रांताओं की नहीं हुआ। चाणक्य के शैक्षणिक चमत्कार की उपज चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने बिखरे हुए भारत को एकता और अखंडता के सूत्र में बांध दिया और एक विशाल साम्राज्य की स्थापना किया।

भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के दौरान सर्वपल्ली राधाकृष्णन, मुंशी प्रेमचंद, मास्टर सूर्यसेन, मौलाना आजाद, सर सैय्यद अहमद खां और ज्योति बा फुले जैसे अनगिनत शिक्षकों ने उस दौर के प्रतिभाशाली वकीलों, पत्रकारों और सामाजिक रूप से सक्रिय बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर भारतीय जनमानस को स्वतंत्रता का अर्थ और महत्व  समझाया तथा स्वतंत्रता के लिए लडना सिखाया। महान शिक्षकों के जागरण के फलस्वरूप ही भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता के आवश्यक चेतना का जागरण हुआ। इस जन जागरण के फलस्वरूप हुए व्यापक आंदोलनों से ही देश को पराधीनता से मुक्ति मिली। स्वाधीनता उपरांत भारत के पुनर्निर्माण और विकास में मेधावी कुशाग्र और दूरदर्शी गुरुओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। अपने अद्वितीय शैक्षणिक कौशल से शिक्षकों ने देश के लिए आवश्यक प्रतिभाओं को तराशा। जिन प्रतिभाओं के मेहनत से न केवल भारत आत्मनिर्भर हुआ बल्कि आज वैश्विक रंगमंच पर मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रहा है। 

आज भारत जिन महान गुरुओं के कारण वैश्विक स्तर पर मजबूती के साथ खडा हुआ वही जाने या अनजाने में गुरुओं की महिमा और महत्ता निरंतर क्षरित हूई है। विभिन्न सरकारों ने शिक्षा के साथ साथ शिक्षको के प्रति भी उदासीन रवैया अपनाया है  जिसके कारण शिक्षा का स्तर गिरने के साथ साथ शिक्षको के स्तर में भी  गिरावट आई है। जो शिक्षक स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान और स्वाधीनता के बाद आरम्भिक दशकों में देश की अग्रिम कतार में रहता था तथा देश के नीति निर्माताओं में अग्रपांक्तेय था वही शिक्षक आज पूरी  हाशिए पर धकेल दिया गया। सरकारों की अदूरदर्शी और बेतुकी नीतियों ने शिक्षको के आर्थिक हितों में निरंतर कटौती करते हुए उनके सामाजिक स्तर को भी गिराने का कार्य किया है। बाजार की शक्तिओ के प्रभाव में आकर सरकारों ने सरस्वती के मंदिर के उपासको के बुढापे को बाजार के हवाले करते हुए पेंशनविहिन कर दिया। इसके अतिरिक्त गैर शैक्षणिक कार्यों (मतगणना कराना निर्वाचन कराना राशन और राहत सामग्री बटवाना इत्यादि ) में शिक्षको को संलग्न करते हुए शिक्षको की गरिमा को कम करने का कार्य किया है। सरकार में बैठे लोगों को भारतीय इतिहास का गहनता से अध्ययन करना चाहिए। महान गुरु परम्परा के बिना बेहतर समाज निर्माण और मजबूत राष्ट्र-निर्माण का स्वप्न और संकल्प पूरा नहीं हो सकता है। भारतीय गुरूकुल परम्परा में राजाओं द्वारा गुरु का यथाशक्ति सम्मान किया जाता था। यदा-कदा राजा जब गहरे संकट में होते थे तो वे गुरुकुल के आचार्यों से मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। वर्तमान समय में लोकतंत्रीक ढंग से चुनी हुई सरकारो के दौर में शिक्षक मार्गदर्शक की भूमिका से पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया है। नब्बे के दशक के उभरते नये समाज की यह कडवी सच्चाई है कि-बढते बाजारवाद और उपभोक्तावाद में शिक्षा की प्रकृति बदल गयी है। आज शिक्षा लगभग व्यवसायिक और आर्थिक स्वरुप में पूरी तरह ढल चुकी हैं। शिक्षक और छात्रों में वह आत्मीय रिश्ता नहीं रहा जो परम्परागत गुरु-शिष्य परम्परा में पाया जाता था। हमारी प्राचीन गुरु शिष्य परम्परा में गुरु शिष्य को पुत्रवत स्नेह देता था और शिष्य भी गुरुओं के प्रति पिता तुल्य आदरभाव रखते थे। आज गुरु पूर्णिमा के अवसर पर समाज के सभी समुदायों को फिर चिंतन और मनन करने की आवश्यकता है। गौरवशाली गुरु परम्परा के अभाव में हम एक सशक्त सक्षम और मजबूत भारत नहीं बना सकते हैं। गौरवशाली गुरु परम्परा को फिर से स्थापित कर हम शक्तिशाली और वैभवशाली भारत का निर्माण कर सकते हैं।   


मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता 

बापू स्मारक इंटर काॅलेज दरगाह मऊ।




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