कोरोना लहर : लचर शिक्षा व्यवस्था अधर में परीक्षा और बीच भँवर में कर्णधार : मनोज कुमार सिंह


वैश्विक महामारी कोरोना ने वैसे तो हमारे जन-जीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया परन्तु इसका सर्वाधिक प्रभाव हमारी शिक्षा व्यवस्था, सामान्य अकादमिक परीक्षाओं सहित विविध प्रतियोगिता परीक्षाओं और देश के कर्णधारो के भविष्य पर पडा है। प्राथमिक विद्यालयों से लेकर उच्च शिक्षा से जुड़े सभी शिक्षण संस्थानों, तथा तकनीकी और व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों में लगभग वर्ष भर सन्नाटा पसरा रहा। कक्षाओं में पठन-पाठन और परिसरों में पाठ्य सहगामी क्रियाएं और बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए समय-समय पर आयोजित होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियां लगभग अवरूद्ध रहीं। सर्वाधिक चिंता जनक हालत प्राथमिक विद्यालयों और उच्च प्राथमिक विद्यालयों के छात्रों की पढाई लिखाई को लेकर रही। क्योंकि- प्राथमिक विद्यालयों और उच्च प्राथमिक प्राथमिक विद्यालयों के छात्र ऑनलाइन शिक्षा के औजारों के प्रयोग से पूरी तरह अनभिज्ञ रहते हैं। ऐसी स्थिति में माता-पिता और संरक्षकों को अपने बच्चों की सहायता कराना पडता है। परन्तु दुर्भाग्य है कि-आज भागम-भाग के दौर में तथा आर्थिक जरूरतों को पूरा करने और अन्य पारिवारिक जिम्मेदारियों के उलझनों में उलझे माता-पिता और संरक्षकों के पास अपने बच्चों की शैक्षणिक गतिविधियों की देखरेख के लिए पर्याप्त समय नहीं है साथ ही साथ पढाई लिखाई से विरक्ति के कारण देखरेख के लिए पर्याप्त समझदारी भी नहीं है। शिक्षकों द्वारा सम्पन्न होने वाली आन लाइन शिक्षा में माता-पिता और संरक्षकों की भूमिका अत्यंत

महत्वपूर्ण हो जाती हैं। प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों को आन लाइन शिक्षा के दौर में छात्रों की उचित शिक्षा के लिए हर माता-पिता और संरक्षकों को पर्याप्त समय निकालना और सूचना प्रौद्योगिकी के संसाधनों के प्रयोग की दृष्टि तकनीकी  समझदारी भी विकसित करनी  होगी ताॅकि शिक्षक द्वारा प्रदान की जाने वाली शिक्षा का पर्याप्त लाभ छात्रों को मिल सके। 

कोरोना की पहली लहर का असर अक्टूबर नवम्बर तक कम होने पर माध्यमिक और माध्यमिक स्तर से ऊपर के शिक्षार्थियों का शिक्षण कार्य आरंभ तो हुआ परन्तु मार्च 2021 में कोरोना की दूसरी जानलेवा लहर ने छात्रों द्वारा पढाई-लिखाई के लिए की गई मेहनत से लेकर शिक्षकों और शिक्षा जगत से जुड़े लोगों की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया। छात्रों की मेधाशक्ति और शैक्षणिक विकास के  मूल्यांकन के लिए होने वाली वार्षिक परीक्षा की सम्भावना तो बनी परन्तु चुनाव के रंग के हमेशा रंगे रहने वाले इस देश में चुनाव तो समम्पन हो गये परन्तु कर्णधारो के आकलन के लिए आयोजित होने वाली समस्त वार्षिक परीक्षाएं स्थगित करनी पड़ी। छात्र -छात्राओं की प्रतिभा और विकास को मापने के परम्परागत वार्षिक परीक्षा प्रणाली से इतर विकल्पों पर विचार करना होगा। वैसे भी महज तीन घंटे की लिखित परीक्षा के द्वारा हम किसी छात्र के गुणात्मक विकास का आकलन नहीं कर सकते हैं। परन्तु आज भी हम लार्ड मैकाले के समय से मूल्यांकन की इस पद्धति को ढो रहे हैं। दुनिया के तमाम विकसित देशों ने छात्रों के मूल्यांकन के लिए आधुनिक और व्यवहारिक तौर-तरीकों को अपना लिया है। इसलिए हमें भी मूल्यांकन के आधुनिक,वैज्ञानिक और व्यवहारिक तौर-तरीकों पर गम्भीरता से विचार करना होगा। 

महामारी के दौरान "जान हैं तो जहान है "का नारा सर्वव्यापी हो गया और संरक्षको ने समझदारी दिखाते हुए अपने बेटे-बेटियों को विद्यालय  भेजने से परहेज किया। जिससे अपनी संततियों को सुयोग्य बनाने के लिए उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाने की तड़प माता-पिता और संरक्षको के सीने में रह गई। इसका एक नकारात्मक प्रभाव यह भी पडा कि-घर-परिवार में पढाई-लिखाई के लिए उचित और उपयुक्त माहौल न होने के कारण बच्चों में उदडंता बढ्ने लगी। महामारी के दौर में दुनिया में विश्वगुरु के नाम से विख्यात हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था को पूरी लकवा मार दिया। "एक तो करेला दूजे नीम पर चढा "का मुहावरा हमारी शिक्षा व्यवस्था में सर्वत्र चरितार्थ होता नजर आया। उत्तर भारत के हिन्दी भाषा-भाषी राज्यों में आम आदमी के लिए शिक्षा व्यवस्था वैसे ही जर्जर हाल में थी दसरे कोरोना संकट ने न केवल हमारी लचर शिक्षा व्यवस्था की कलई खोल दी बल्कि शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह संकट में डाल दिया। इस आकस्मिक संकट के कारण शिक्षा व्यवस्था से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े सभी लोग किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आए। सुनहरे भविष्य की आस में महंगी फीस वाले आधुनिक साज-सज्जा से परिपूर्ण तथा सूचना संचार के संसाधनों से लैस हाइटेक कांनवेट काॅलेज में पढने वाले विद्यार्थियों सहित उनके माता-पिता, संरक्षक, शिक्षक और सरकार में बैठे उच्चस्तरीय नीति नियंता सब लोग हलाकान परेशान नजर आये। महामारियों के दौर में शिक्षा व्यवस्था सुचारू रूप से निरंतर चलती रहे इस पर दूरदर्शिता के साथ हमने कभी चिंतन ही नहीं किया। कोरोना संकट के दौरान शिक्षा की परम्परागत और प्रचलित पद्धतियों माध्यमों और प्रक्रियाओं से इतर पद्धतियों, माध्यमों और प्रक्रियाओं के विकल्पो पर विचार किया गया और कुछ विकल्पों प्रयोग भी किया गया। आज भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि-चाक और डस्टर के माध्यम से काले श्यामपट्ट पर एक शिक्षक पूरी कक्षा को अपनी विषय-वस्तु का जितना उम्दा तरीके से बोध करा देता है उसका कोई विकल्प अभी तक नहीं है। श्यामपट्ट ,चाक और डस्टर के माध्यम शिक्षक का अपने छात्रों के सीधा साक्षात और जीवंत सम्बन्ध कोरोना संकट में पूरी तरह समाप्त हो गया। कोरोना संकट को देखते हुए सरकार ने इसके विकल्प के रूप में अनलाइन शिक्षा,दूर-दर्शन द्वारा शिक्षा और स्मार्ट मोबाइल हैंडसेट के माध्यम से  वर्चुअल कक्षाओं द्वारा शिक्षा इत्यादि बहुतेरे वैकल्पिक तौर-तरीकों का प्रयोग किया गया परन्तु वह मौलिकता, जीवंतता और सजीवता नहीं देखने को मिली। क्योंकि एक शिक्षक कक्षाओं में मात्र ज्ञान और सूचनाओं का सम्प्रेषणकर्ता और संवाहक नहीं होता है बल्कि एक चतुर चौकन्ना शिक्षक कक्षाओं में अपने समस्त छात्रों की समस्त हरकतों, भाव भंगिमाओं और प्रत्येक गतिविधियों पर पैनी नज़र रखने वाला कुशल पारखी होता है। अपने विद्यार्थियों को परखने की अद्भुत क्षमता और अपनी काबिलियत और कर्मठता से विद्यार्थी की अंतर्निहित क्षमता, प्रतिभा और अभिरुचि को पहचान कर उसके अनुरूप उसको ढाॅलने का प्रयास करता है। सुयोग्य शिक्षक एक विद्यार्थी को उसकी अंतर्निहित क्षमता प्रतिभा और अभिरुचि के अनुरूप  ढाल कर उसके विकास की उच्चतम सम्भावनाओं के क्षितिज तक पहुंचने की सामर्थ्य प्रदान करता है। 

स्वाधीनता उपरांत भारत के चतुर्दिक और त्वरित विकास के तकनीकी दक्षता के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण सामान्य शिक्षा को अपरिहार्य बताया गया। बदलते दौर की बदलती चुनौतियों और देश की आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा व्यवस्था में ढाॅचागत सुधार करने के लिए राधाकृष्णन आयोग, मुदालियार आयोग और कोठारी आयोग जैसे दर्जनों आयोग बनायें परन्तु इनकी सिफारिशों के अनुरूप अपेक्षित बदलाव नहीं हुए। आज कोरोना संकट की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए सरकार में बैठे नीति-निर्माताओं, शिक्षा विदों  तथा  सूचना संचार के संसाधनों के विशेषज्ञों को एक साथ बैठकर नये सिरे शिक्षा व्यवस्था पर चिंतन मनन करना होगा और कोई समुचित विकल्प तैयार करना होगा ताकि कर्णधारो का भविष्य अंधकारमय न होने पाए। सूचना क्रांति का आगाज़ तो भारत में नब्बे के दशक में हो चुका था परन्तु आज भी सामान्य शिक्षा वाले शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों को सूचना संचार के संसाधनों के प्रयोग की दृष्टि से सुदक्ष और सक्षम बनाने में हम सफल नहीं नहीं हो पाए हैं। कोरोना संकट के अनुभवों से सीखते हुए शिक्षक के साथ-साथ संरक्षकों सूचना संचार के संसाधनों के विशेषज्ञों और सरकार सबको  मिलकर संकटकालीन दौर में शिक्षण बेहतर तरीके से सम्पन्न  हो इसके लिए  प्रयास करना होगा। ताकि कर्णधारों के भविष्य पर नकारात्मक प्रभाव न पड़े। 


मनोज कुमार सिंह "प्रवक्ता" 

बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ।



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