(1)
भाई चारा प्रेम का, है होली-त्यौहार
आलिंगन के आड़ में, रगों की बौछार
रगों की बौछार, करे मस्ती को दूना
प्रकृति का उपहार, बसन्ती बनी नमूना
‘कश्यप’ कविताकार, संग समरसता आई
जोड़ प्रेम का तार, सभी को समझे भाई।
(2)
गले सभी हैं मिल रहे, लगा अबीर-गुलाल
माथे तिलक लगाय के, पोत रहे हैं गाल
पोत रहे हैं गाल, गले मिल हमजोली के
चमक रहे हैं भाल, बालकों की टोली के
‘कश्यप’ कविताकार, इन सबको ले के चले
खुशियाँ मिले अपार, इन्हीं से मिल के गले।
(3)
मस्ती में सब झूमते, उड़ा अबीर-गुलाल
नाच कबीरा गा रहे, हो के सभी अधीर
हो के सभी अधीर, थिरकते झूम-झूम के
बनते होली-वीर, धरा को चूम-चूम के
‘कश्यप’ कविताकार, विचरता हर बस्ती में
निज मन का उद्गार, बाटता है मस्ती में।
डॉ0 जनार्दन चतुर्वेदी ‘‘कश्यप’’
राजपूत नेवरी, भृगु आश्रम, बलिया
मो0 नं0-9935108535
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