फ़ुरसत किसे की जो मेरा हाल पूछता, हर सख्श अपने बारे में कुछ सोचता मिला

वास्तविकता के धरातल पर आज कल हर तरफ हलचल है। कहीं महंगाई की मार से आम आदमी बेहाल‌ है‌‌ गृहस्थी चलाने में पैमाल है तो वही बेरोजगारी, कोरोना की महामारी से भी खतरनाक‌ होती जा रही है। कोरोना में तो मौत साथ निभा रही हैं लेकिन बेरोजगारी मैं तो केवल भूख सता रही है, न आदमी मर पा रहा है न जी पा रहा है। सरकार के नुमाइंदों के ढपोरशंखी वादों की बुनियाद पर सिसक रहा लोकतंत्र बगावत के मन्त्र का जाप शुरु कर दिया है। हर दिल में जहर भर दिया है। चारों तरफ गम जदा माहौल हैं। घुट-घुट कर जीना पड़ रहा है। आये है इस जहां में तो जीना ही पड़ेगा जिन्दगी जहर है तो पीना ही पडे़गा।बदलाव की हवा धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रही है। कोरोना के चलते गुम सुम पड़ा इन्सान अभी समह्लल रहा था कि तब तक कोरोना समुद्र के तरह पीछे हटकर दूनी ताकत से हमला कर दिया। सरकार के अहलकारों का भला कर दिया। आम आदमी दहशत में हैं वहीं सियासी बस्तियों में मौसम का मिजाज रंगीन है चुनावी चकल्लस में फंसकर देश का परिवेश विषाक्त हो रहा है।

हिम्मत जुटाकर सरकारी फरमान का बिरोध अवरोध किसान संविधान के दायरे में शुरू किये तो उबाल आ गया वर्षों से छिपा  खालिस्तानी बवाल सामने आ गया। देश की सम्प्रभुता का सवाल आ गया। हर मोर्चे पर सफलता कि अकथ कहानी लिखने वाली सरकार लाल किला के उपर चढ़ कर देश की स्मिता को ललकारने वाले खालिस्तानी परचम बुलन्द कर दिये, सरकार चुप रही बस यही से देश की जनता समझ गयी की सियासत की लम्बी पारी शुरू हो चुकी है। विरोधियों की रणनिती फेल हो गयी, न गोली चली न डंडा। फूट गया भंडा।कोरोना का कहर शुरु हो चुका है लगातार उसका दायरा बढ़ता जा रहा है। अगर किसान आन्दोलनकारियों के बीच संक्रमण शुरु हो गया तो उसका जिम्मेदार कौन होगा। तुष्टीकरण की सियासत करने वाले शाहीन बाग के तरह नेपथ्य में चले जायेंगे। फिर क्या होगा सम्भ्रान्त किसानों का जिनका रिमोट कनाडा से कंट्रोल हो रहा है। 

तबाही के आग में जल रहा आम आदमी कल भी बेचारा था आज भी बेचारा बनकर ही गुजारा कर रहा है। दरबदर होती जिन्दगी कितना भी सादगी से जीये समस्या तबाही का खेल हर रोज कर रही है। कमाई के संसाधन खत्म होते जा रहे नौकरी रोजगार ब्यापार सब कल की बात होता जा रहा है। हर तरफ दर्द भरी मायूसी है। दिल में कसक लिये खामोशी है। सारी समस्या आम आदमी के साथ है वरना खुशहाल जिन्दगी जीने वालें पर क्या फर्क पड़ता है। लोकतन्त्र का स्वतंत्र आवरण प्रदूषित हो चला‌ है। आह भरा सिसकने लिये गरीब मजदूर करोना के दहशत में विवश होता जा रहा है। आज कल खेती किसानी का समय आ गया है खेतों में फसल पक चुकी है। कुछ दिन में ही फसलों की कटाई मड़ाई शुरु हो जायेगी। उसी‌ में कोरोना का डर दुसरी तरफ चुनाव में सियासतदारों का दौरा हो रहा है घर-घर इस पर कहीं नहीं रोक है। विषाक्त होता बदलता परिवेश कल क्या गुल खिलायेगा यह तो वक्त ही बतायेगा मगर  वास्तविकता के धरातल पर कदम ताल करती ब्यवस्था से लोगों की आस्था खत्म होती जा रही है। झूठ फरेब ढपोरशंखी वादों के लुभावने नारो के बल पर सत्ता सुख का रसास्वादन करने वालों के दोगली निति से देश विभाजित होने के राह पर चल निकला है। किसान आन्दोलन के पीछे शुरू हो चुका है यह सिल सिला। बंगाल चुनाव का परिणाम ही देश कि ब्यवस्था का रास्ता प्रशस्त करेगा। 

जयहिंद🙏🏻🙏🏻


जगदीश सिंह, मऊ

मो0--7860503468

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