फ़िर सोचा की लौट आऊं दुनिया की तरफ
या खुदा ये क्या गुनाह सोचा हमने ???
ख्वाबों के संघर्षो की भूमि से
रिश्तों की बंजर भूमि पर
फ़िर.. लौट आने को आखिर सोचा भी कैसे ?
ये रंगीन जो दिखती है दुनिया
कितनी बेरंग है भीतर से
हँस दूँ खुल के गर मैं ...... महफिल में तो
जाने कितने तौहमते लगाती है ?
और कहती है खुद है कि... अब दुनिया कहां रही
पहले की तरह हसीन ??
जो मरना तुम छोड़ दो पैसे पर
जो दिखावे की हँसी का लबादा
उतार के फेक सको तुम
ये नकाब उतार दो झूठी शान का
हाँ
तक़लिफ होगी ताने मिलेंगे
उपहास हर कदम पर मिलेगा
ध्यान ना दे सकने का साहस हो तो
फ़िर देखो ....कितनी सुंदर ,रंग -बिरंगी
चहकती सी है ये दुनिया
खैर कितनी भी सुंदर हो .....
मुझे ना लौटना है फ़िर इधर
रंजना यादव ✍️
बलिया।
addComments
Post a Comment