भारत मे समाजवाद का इतिहास, स्वरूप और भविष्य : मनोज कुमार सिंह


आध्यात्मिक चिंतन और मानवता वादी दृष्टिकोण से भारत में समाजवाद का विचार अत्यंत प्राचीन समय से चिंतन, मनन और विचार-विमर्श में रहा हैं। ॠग्वेद की ऋचाओं और बौद्ध धर्म ग्रंथों में विशेष रूप से धम्मपद में समाजवाद का दर्शन मिलता है। इसके अतिरिक्त क्रांतिद्रष्टा कबीर सहित अधिकांश मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन के संतों और कवियों के विचारों में भी छिटपुट रूप से समाजवाद पर चिंतन पाया जाता हैं। परन्तु आर्थिक तथा सामाजिक पुनर्निर्माण के दर्शन, सिद्धांत तथा विचारधारा के रूप में समाजवाद भारत में पश्चिम के प्रभाव से ही अधिरोपित, विकसित तथा लोकप्रिय हुआ। महर्षि अरबिंद ने 'इन्दु प्रकाश' में 'पुरानो के बदले नये दीपक 'शीर्षक के अन्तर्गत सात लेख प्रकाशित कराए थे। इन लेखों में उन्होंने कांग्रेस की मध्यवर्गीय मनोवृत्ति की आलोचना किया था और सर्वहारा की दशा सुधारने का आग्रह किया था। 1917 में सोवियत रूस में सम्पन्न प्रथम सफल समाजवादी क्रांति के उपरांत समाजवादी विचारधारा तीसरी दुनिया के देशों में लोकप्रिय होने लगी और तिसरी दुनिया के नेता तथा तीसरी दुनिया का बौद्धिक समुदाय समाजवादी विचारधारा के प्रति आकर्षित होने लगा। इसका कारण यह भी था कि- सोवियत संघ के क्रांतिकारियों ने उपनिवेशवाद का पूर्णतः विरोध किया और पराधीन देशों की स्वाधीनता के पक्ष में प्रखरता से  आवाज़ बुलंद की। 

सम्भवतः आर्य समाज से शिक्षित-प्रशिक्षित लाला लाजपत राय प्रथम भारतीय थे, जिन्होंने समाजवाद और बौलशेविकवाद पर अपनी कलम चलाई। परन्तु लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक 'फ्यूचर ऑफ इण्डियन पॉलिटिक्स' में बौलशेविकवाद के प्रति कोई सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण नहीं अपनाया। हालांकि नारायण मल्हार जोशी के प्रयास से स्थापित अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के 1920 में आयोजित प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने ही किया था। श्रमिक संघो को संगठित, मुखरित और मजबूत करना समाजवादी विचारधारा की प्राथमिक विशेषताओं में से एक है। मानवेन्द्र नाथ राय सम्भवतः पहले भारतीय थे जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मार्क्सवादियों के सम्पर्क आए और  उन्होंने विशुद्ध मार्क्सवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए 'इण्डिया इन ट्रांजीशन' (संक्रमण कालीन भारत) और 'इण्डियन प्रोब्लम' (भारतीय समस्या) जैसी पुस्तकों की रचना की। जिसमें उन्होंने कांग्रेस पर पूंजीपतियों के आधिपत्य की तीखी आलोचना किया। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में मानवेन्द्र नाथ राय और बीरेन्द्र चट्टोपाध्याय दो भारतीय विचारक  समाजवादी विचारधारा में गहरी निष्ठा रखने वाले विचारक के रूप उभर कर आए। उस दौर में कांग्रेस की अग्रिम कतार के नेताओं में चितरंजन दास ने गया कांग्रेस के अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में 1917 की रसियन क्रांति की महान घटना का उल्लेख किया था। किन्तु उसके प्रति कोई सहानुभूति प्रदर्शित नहीं की। फिर भी समाजवादी न होते हुए भी चिंतरंजन दास ने भारत में उभरते ट्रेड यूनियन आन्दोलन के विकास में सहायता दी। 1926 मे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने पिता मोती लाल नेहरू के साथ सोवियत संघ की यात्रा किया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सोवियत संघ द्वारा अपनाई जाने वाली नियोजित अर्थव्यवस्था और उसकी उपलब्धियों का अपनी पुस्तक 'सोवियत रसिया' में प्रशंसनात्मक चित्र प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। पंडित नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'विश्व इतिहास की झलक' में समाज के विकासक्रम और इतिहास को समझने के लिए कार्ल मार्क्स द्वारा अपनाई जाने वाली वैज्ञानिक और आर्थिक पद्धति की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पंडित नेहरू की तरह उस समय सोच, विचार, दृष्टिकोण और उम्र के लिहाज़ से युवा कहे जाने वाले कुशाग्र बुद्धि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस सोवियत संघ द्वारा अपनाई जाने वाली नियोजित अर्थव्यवस्था से गहरे रूप से प्रभावित थे। इसलिए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जब 1939 में कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए तो आधुनिक भारत के पुनर्निर्माण और विकास के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में नियोजन समिति का गठन किया। इसलिए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को भारत में योजना आयोग का जन्मदाता कहा जाता हैं। समाजवादी विचारधारा के अनुसार जनता की आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं के अनुरूप विकास सुनिश्चित करने के लिए नियोजित अर्थव्यवस्था का सिद्धांत अपरिंहार्य है। नियोजित अर्थव्यवस्था के सिद्धांत से प्रभावित हो कर एम विश्वसरैया ने प्लान्ड इकॉनमी फाॅर इण्डिया नामक पुस्तक लिखी थी। 

बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में भारत में बढते समाजवादी चिंतन के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के संगठनों की स्थापना की जाने लगी। 1936 मे स्थापित अखिल भारतीय किसान सभा, युवकों के संगठन, श्रमसंघीय आन्दोलन तथा प्रगतिशील लेखक संघ इत्यादि समाजवादी विचारधारा से अनुप्रेरित थे। इस चौथे दशक में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष करने वाली मुख्य राजनीतिक धारा कांग्रेस पार्टी के अंदर भी समाजवादियों का प्रभाव बढता गया। भारत में समाजवाद के संगठनात्मक विकास की दृष्टि से मई 1934 मे कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना एक महत्वपूर्ण परिघटना हैं। हालांकि क्षेत्रीय स्तर पर इसके पूर्व 1931 मे बिहार समाजवादी दल और 1934 में मुम्बई समाजवादी दल की स्थापना की जा चुकी थी। ध्यातव्य हो कि-मई 1934 मे कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना को विशुद्ध भारतीय साम्यवादियों ने वामपंथी सुधार कहकर तीखी आलोचना की। यही से पाश्चात्य स्वरूप से भिन्न भारतीयता के रंग में रंगे समाजवाद का विकास आरंभ होता हैं। समाजवादियों का पहला अखिल भारतीय सम्मेलन 17 मई 1934 को पटना में नरेंद्र देव की अध्यक्षता में हुआ। इस दल की स्थापना में मुख्य भूमिका जयप्रकाश नारायण की थी। अच्युत पटवर्द्धन, युसुफ़ मेहरअली तथा अशोक मेहता ने पूरी ईमानदारी से सहायता की। 1942 के निर्णायक आंदोलन में साम्यवादियों से अलग विचार रखते हुए समाजवादियों ने साहसिक भूमिका का निर्वहन किया। 1948 के नासिक सम्मेलन में समाजवादियों ने कांग्रेस से अपने को अलग कर लिया। चौदह वर्ष तक कांग्रेस के साथ रहने के उपरांत समाजवादियों ने कांग्रेस का परित्याग कर भारतीय समाजवादी दल नाम से एक दल कायम कर लिया। 1952 के प्रथम आम चुनाव के बाद समाजवादी दल और जे बी कृपलानी के नेतृत्व में संगठित मजदूर कृषक दल ने परस्पर विलय करने का निर्णय किया। क्रमशः लखनऊ और मुम्बई में दोनों दलों के नेताओं की बैठक हूई और अंततः परस्पर विलय का निर्णय लिया गया। दोनों दलों के विलय के बाद प्रजा समाजवादी दल अस्तित्व में आया। 

यह सत्य है कि-भारत में समाजवादी चिंतन का विकास पाश्चात्य देशों में प्रचलित समाजवादी चिंतन के फलस्वरूप हुआ परन्तु भारतीय समाजवादी चिंतन का विकास पाश्चात्य देशों में विकसित समाजवाद से कुछ बुनियादी अंतर रखता  है। भारत में समाजवाद का विकास महज आर्थिक और सामाजिक पुनर्निर्माण की योजना के रूप में नहीं हुआ, बल्कि वह निर्मम और निर्लज्ज ब्रिटिश साम्राज्यवाद की लौह जंजीरों से पूर्णतः राजनीतिक मुक्ति की एक विचारधारा के रूप में भी विकसित हुआ। भारतीय समाजवाद जब अपने शैशवावस्था में था उस समय भारत की मौलिक समस्या देश की राजनीतिक स्वतंत्रता थी। कोई भी लोकप्रिय राजनीतिक दल भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता की उपेक्षा नहीं कर सकता था। भारतीय समाजवादी चिंतन पाश्चात्य समाजवादी चिंतन से इन अर्थों में भी भिन्न है कि-पाश्चात्य समाजवाद का विकास विशुद्ध पूंजीवादी व्यवस्था की शोषणकारी प्रवृत्तियों के विरुद्ध एक  प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। पाश्चात्य देशों में उदार पूँजीवाद ने अठारहवीं शताब्दी तक भूदासत्व पर टिकी सामंतवादी व्यवस्था और कर्मकाण्ड तथा पाखंड पर आधारित पुरोहितवाद को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था। भारत में समाजवादी चिंतन जिस समय परवान चढ रहा था उस समय भारतीय समाज में सांमतवाद, पुरोहितवाद, महाजनी व्यवस्था तथा राजतंत्रीय परम्पराएं ब्रिट्रिश सरकार के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग से मजबूती से कायम थी। इस तरह सामन्ती अभिजातवर्गीय विशेषाधिकारों पर प्रहार करने का जो काम पाश्चात्य देशों में पूँजीवादी लोकतंत्र और पूंजीवादी उदारवाद के प्रवर्तकों ने किया वह काम भारत में समाजवादी विचारकों को करना पडा। प्रकारांतर से भारत में समाजवादियों को पूंजीपतियों की भारी मुनाफाखोरी और अतर्कसंगत ब्याज की बुनियाद को ही महज चुनौती नहीं देनी थी,  बल्कि जमींदारी के गहरे मकडजाल में उलझी भारतीय कृषि और किसानों की मुक्ति की लडाई भी लडनी थी। इसलिए भारतीय समाजवादी चिंतन के लिए यह आवश्यक था कि-वह देश में बडे पैमाने पर बदतर जीवन जी रहे खेतिहर मजदूरों के उत्थान और उद्धार के लिए किसी सिद्धांत का निरूपण और कार्य योजना प्रस्तुत करें। 

स्वाधीनता उपरांत भारतीय समाजवाद के निरूपण में आचार्य नरेन्द्र देव, डॉ राम मनोहर लोहिया, जे बी कृपलानी, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्द्धन, युसुफ़ मेहरअली तथा अशोक मेहता और मधुलिमये इत्यादि ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। आचार्य नरेन्द्र देव और जयप्रकाश नारायण सहित अधिकांश समाजवादी मार्क्सवादी विचारधारा से काफी हद तक प्रभावित थे। परन्तु नरेन्द्र देव और जयप्रकाश नारायण पर  गांधी जी के व्यक्तित्व का गहरा असर पड़ा। स्वतंत्रता की प्राप्ति तथा गांधी जी मृत्यु के उपरांत समाजवादी दल के उद्देश्य में मौलिक परिवर्तन देखने को मिलता है। 1949 के पटना अधिवेशन में समाजवादी दल ने बौलशेविको के लोकतांत्रिक केंद्रवाद के सिद्धांत का परित्याग कर दिया। इसके स्थान पर व्यापक जनाधार प्राप्त कर व्यापक सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाना दल का उद्देश्य बनाया गया। 1949 के बाद समाजवादी दल ने सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं के प्रति रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाया और संसदीय लोकतंत्र में विश्वास व्यक्त करते हुए लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली द्वारा समस्याओं का समाधान करने प्रयास किया गया। भारतीय समाजवादी चिंतन धारा पर गांधी जी के व्यापक प्रभाव का परिणाम है कि-समाजवादी विचारकों ने सत्ता के विकेन्द्रीकरण को भी एक राजनीतिक सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया। गांधी के अनन्य अनुयायी होने के कारण आचार्य नरेन्द्र देव पर गांधीवादी नैतिक मूल्यों का गहरा असर पड़ा था। इसलिए नरेन्द्र देव को नैतिक समाजवादी माना जाता हैं। नैतिक मूल्यों में विश्वास करने के कारण ही नरेन्द्र देव समाजवाद को सांस्कृतिक आंदोलन भी मानते थे तथा उन्होंने समाजवाद के मानवतावादी आधार पर बल दिया। मार्क्सवादियों की तरह नरेन्द्र देव इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या में विश्वास करते थे और यह यह भी मानते थे कि-पूँजीवाद के विकास की सम्भावनाएं समाप्त हो चुकी हैं। पूँजीवाद में पनपती एकाधिकारवादी प्रवृत्ति निर्मम विस्तारवाद को सम्बल प्रदान करती है। जिसका स्वाभाविक परिणाम विश्व युद्ध हैं। नरेन्द्र देव का स्पष्ट अभिमत था कि-दुनिया को अगर विश्वयुद्ध से बचाना है तो निश्चित रूप से वैज्ञानिक समाजवाद को अपनाना होगा। 

आम जनमानस के बुनियादी मुद्दों को आधार बनाकर राजनीति करने वाले समाजवादियों की राजनीतिक भूमिका और सफलता का विश्लेषण किया जाय तो ज्ञात होता है कि-भारतीय राजनीति की दिशा और दशा निर्धारण में समाजवादी दलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं। समाजवादी विचारधारा के दलों को 1967, 1977, 1989 और 1996 मे कभी आंशिक कभी पूर्ण सफलता प्राप्त हूई। परन्तु व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के कारण ये राजनीतिक सफलताए अल्पकालिक रहीं। यह सर्वविदित तथ्य हैं कि-समाजवादी दलों ने भारत में भूमि सुधार, बैंकों सहित अधिकांश उद्योग-धंधों के सार्वजानिकरण, एक समान शिक्षा व्यवस्था, पिछडी और दलित जातियों के आर्थिक उत्थान तथा सामाजिक सम्मान, लघु कुटीर उद्योगो को बढावा देने जैसे मुद्दों के माध्यम भारतीय राजनीति को गहरे रूप से प्रभावित किया। परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य हैं कि-नब्बे के दशक से समाजवादी दलों में विघटनकारी प्रवृत्तियाॅ प्रभावी होने लगी। आचार्य नरेन्द्र देव, मधुलिमये, जयप्रकाश नारायण और डॉ. राम मनोहर लोहिया की पाठशाला से शिक्षित-प्रशिक्षित तथा समाजवादी विचारधारा की भावी विरासत को सम्भालने वाले मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान, नितिश कुमार, नवीन पटनायक, एच डी देवेगौड़ा और चौधरी अजित सिंह जैसे नेता जातिवादी, व्यक्तिवादी और परिवारवादी हो गये। इन समस्त नेताओ द्वारा संचालित दलों से समाजवादी चिंतन और विचारधारा विलुप्त हो गई। मंडल मसीहा पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह के बाद ऐसा कोई सर्वमान्य नेता नहीं हुआ जो उत्तर से दक्षिण तक समाजवादी पृष्ठभूमि के लोगों को एकजुट कर सके। यह सत्य है कि-भारत की आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के बेहतर समाधान का प्रारूप समाजवादी दलों के पास है। सम्पूर्ण भारत में आज भी समाजवादियों का व्यापक जनाधार हैं। परन्तु जितना व्यापक जनाधार हैं उतना ही यह जनाधार बिखरा हुआ है। समाजवादी दलों का नेतृत्व करने वाले नेताओं द्वारा जबतक व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और जातिवादी चरित्र का परित्याग नहीं किया जाएगा तब समाजवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध जनाधार को संगठित नहीं किया जा सकता है। समाजवादी विचारधारा में आस्था रखने वाले राजनीतिक समुदाय संगठित होकर राष्ट्रीय विकल्प बन सकते। जिसके आसार हाल फिलहाल नजर नहीं आ रहे हैं। 

मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता 

बापू स्मारक इंटर काॅलेज दरगाह, मऊ।



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