*बनो तुम वन के भक्त अनन्य...*

 


न करना वन-भक्षण, बन ऋक्ष।

काटना हरित न, कोई वृक्ष।                                         

वनों पर करके भीषण वार। 

निमंत्रित करते, निज संहार।


अगर करना है, जीवन धन्य। 

बनो तुम वन के भक्त,अनन्य।

लिया जिन लोगों ने, वनवास।

रहे वे चूम, आज, आकाश।


इधर, जीवन से हुआ विराग।

 उधर वन से, जागा अनुराग।

अयोध्या का सुख-बैभव त्याग।

राम को हुआ, वनों से राग।


बसे हैं, कानन  में, श्रीराम।

खलों का, करते काम-तमाम।

कोशला-रानी की तज गोद।

मग्न हैं, शवर-सुता की गोद।


खिला मां शवरी, मीठे बेर। 

रही है, प्रभु पर, प्यार विखेर।

यहां राजत्व सीखते राम।

लोक-हित-साधक हो, अविराम।


प्रजा-हित-जीवन कर उत्सर्ग।

बने आदर्श, त्याग निज, स्वर्ग।

जन्म ले, कुश-लव यहीं, अजेय।

रोकते, राम-सैन्य का ध्येय।


यहीं पर रामायण ले जन्म।

बताती, जीवन के हर, मर्म।

वास कर, वृंदावन में श्याम।

लोक-रंजन-रत, आठों याम।


वनों में वेदों का, प्राकट्य। 

मिटाता विश्व-भेद, आकट्य।

यहीं पर, बेदव्यास भगवान।

 महाभारत का, करते गान।


ले ज्ञान,‌ अलौकिक, गीता से।

संपादक-कर्म, पुनीता से।

देता है वन, उपदेश विमल।

इनको जीवन में करो अमल।


वन करता दूर प्रदूषण है।

यह श्वसन-वायु का भूषण है।

वसते वन में जगदीश्वर हैं।

पार्वती-संग, परमेश्वर हैं।


यदि इनका कहीं विनाश हुआ।

तो जानो सर्वानाश हुआ।

वन कहता, सबकी मदद करो।

भुगतान प्रेम की, नगद करो।


सुख ले, सुख वांटो, सुखी करो।

दुख हर लो, सुख दे, सुखी करो।

यह धरा, सभी की माता है। 

सबके हित, इसका, खाता है। 


आवंटन करो, नहीं रण हो।

कोई न कहीं, भंडारण हो।

सच्चिदानंद के प्रतिनिधि हो।

क्यों  बसा रहे उर दुःख-निधि हो?


विद्वत जनों को सादर समर्पित एवं अभिनंदन..

महेन्द्र राय 

पूर्व प्रवक्ता अंग्रेजी, आजमगढ़। 




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