प्रियतम ! मेरा प्रणय निवेदन स्वीकार करो.....


कल दिनकर जी की उर्वशी पढ़ने के बाद उसका ख़ुमार सारे दिन ही बना रहा बस फिर क्या रात्रि 12:30 बजे से एक गीत दुपक-छुपक कर बार बार मुझसे कह रहा मुझे लिख लो ...इस बार गया तो पता नहीं वापिस लौटूंगा भी या नहीं इसलिए अभी लिख लो और आखिरकार रात्रि 2:00 बजे वो गीत मेरी डायरी के पन्नों पर उतर ही आया और अब आप सभी के समक्ष प्रस्तुत है मेरा ये नया गीत..... 

प्रतिपल बढ़ती जाती है जो

क्षणभर भी होती नहीं क्षीण

अन्तस् में उपजी शनै: शनै:

यह प्रेम पीर है अति प्रवीण।

कितने ही वैद्य बदल डाले

मुझको खुराक न भाती है

सुधियों का ज्वर चढ़ आता है

फिर भारी पीर सताती है।


इस प्रेमरोग का प्राण! तुम्हीं उपचार करो।

प्रियतम ! मेरा प्रणय निवेदन स्वीकार करो।।


मैं नहीं अप्सरा सुरपुर की

इक साधारण-सी नारी हूँ

महलों की मुझको चाह नहीं

कच्चे आँगन की क्यारी हूँ।

तुम पारिजात-से खिले-खिले

अध्यात्म सुधा पी लेते हो

सच-सच बतलाना प्रेम बिना

कैसे हँस कर जी लेते हो?


ओ सहगामी! अब तनिक न और विचार करो।

प्रियतम ! मेरा प्रणय निवेदन स्वीकार करो।।


तुम निष्ठुर-से बनकर हरदम

क्यों नेह मेरा ठुकराते हो?

मैं बार-बार विनती करती

क्यों नहीं मुझे अपनाते हो?

तुम ज्ञानवान विद्वान बड़े

बेशक बन जाओ सखे! मगर 

हर ज्ञान रहेगा निराधार

यदि पढ़ न सके ढाई आखर !


ख़ुद को मैं सौंप रही तुम अंगीकार करो।              

प्रियतम ! मेरा प्रणय निवेदन स्वीकार करो।।


✍️शिवांगी शर्मा 'प्रेरणा'

साभार-विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा। 



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