ग़ज़ल

 


थी कभी हासिल वफादारों की भीड़

अब तो है हरसू सितमगारों की भीड़


नाम पर अपनों के अब तो रह गयी

जिंदगी में बस अदाकारों की भीड़


रात-भर ये चाँद तन्हा ही रहा

यूँ तो उसके ग़िर्द थी तारों की भीड़


मंदिरों-मस्जिद में लेती है पनाह

या ख़ुदा अब तो गुन्हगारों की भीड़


ज़ेह्र में अब सिर्फ हैं अय्यारियां

और होंठो पर फ़क़त नारों की भीड़


अम्न की उम्मीद अब बेकार है

जब सियासत में हो मक्कारों की भीड़


दिन ब दिन बढती ही जाती है "किरण"

हर तरफ तेरे तलबगारों की भीड़ 


डॉ0 कविता "किरण"✍️

साभार-विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा




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