*संघर्ष*



हां सुनो 

अब मेरे लिये त्यौहार मायने नही रखते

मायने रखती है तो अब बस वो मंजिल

जिसके लिये ना जाने

कितने ख्वाब देखे है मैने 

और ....सबने.... 

बेसब्री से उसके टुट जाने का 


अब दिवाली के पटाखों में

वो शोर कहा... जो मेरे

जहन के शोर को चीर सके 

रंगोली के रंगो मे अब दिल की

उदासी बखुबी दिख जाती है 

हम्म .....तुम नये कपड़ो के लिये रोज 

दुकानों के चक्कर लगाते हो 

पर हमे तो अब  

पुस्तक भंडार के ही रास्ते-पते याद है 


हाँ ....तुम आईने मे खुद को संवारते हो 

और हम वही केमिस्ट्री और फिजिक्स के सिद्धांतो में 

खुद का कल छान रहे है 

पास थे जो लोग मेरे ....

बस मेरी दो असफलता में ही...

"तेरी औकात क्या है" कह के चलते बने .....


रोज सुबह उठते ही ....

एक युद्ध आरम्भ हो जाता है 

अपनी असफलता के खिलाफ, 

आलस के खिलाफ 

अपने हारते हुये विश्वास के साथ साथ, 


हां सुनो !

क्यू आश लगाये बैठे हो ? मेरी असफलता का 

इस युद्ध मे 

या तो जीत का तिलक लगेगा,

या फिर सिख का उपहार ....

हारे तो हम तब भी नही थे खुद से 

और ना ही कल हारेंगे .....

क्यूँकि सिख लिया है मैने 

गिर के फिर से उठ चलने का नायब तरीका


✍️ रंजना यादव, बलिया




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