"शरद" शिशिर


प्रेम-प्रिति की बातें कितनी सच्ची है बतलाती है

शिशिर जवानी पर जब आती मुफ़लिस को दहलाती है

वियोगियों की आड़ छुपकर लिखते हैं कविजन

शिशिर वेदना अपनी ही तो

कलम बहुत ही कम लोगों की निष्ठुर सत्य सजाती है

कल से शरद जवानी पर है उसके साथ घटा कमसिन

सर्द हवा सिहराती तन-मन दिल में हुक उठाती है

मेरे आँखों की कोरों में भी बूँदें उतराती हैं

बीच हृदय के कील धँसाके कर्कर तीक्ष्ण चलाती हैं

लिपटे सभी गरम कंबल में चाय की चुस्की लेते हैं

उन लोगों ने तन-मन अपने हर जाड़े में सेंके हैं

क़हर देखकर जाड़े की मुझे उनकी याद सदा आती

जो हैं राष्ट्र की नींव उन्हें क्यों गहन वेदना ही ताकी

टपक रही हैं बर्फ की बूँदे हाथ-पाँव सब जम जाते हैं

फटा दुशाला बना रजाई काम ना इससे चलता है

और पेट भी तो खाली है कैसे उन्हें आराम मिले

कुकुआते पेटों, सर्दी की मार सह रही देहों को

बोलो ना किस तरह भला ये प्रेम-उदधि-संज्ञान मिले

हल्कू की सिसियाती रातों का कभी जिक्र छिड़ा उनमें

क्या छबरा कुत्ते सा कभी उनमें भी स्नेह-सुरभि उमड़ा उनमें

जिस सत्ता पर जनता अपना सच्चा स्नेह लुटाती है

टूटे घर हैं फटी टाटियाँ और है चुल्हा भी ठंडा

उधर उड़ाते हैं वे नित ही चिकन-कबाब,मत्स्य-अंडा

काम ढूँढकर हाल बुरा है मुफ्त भला कुछ क्या देंगे

कह दें गर जो बात हकों की हवालात पहुँचा देंगे

और लगाएंगे कोड़े आनन्द का ये उनके फंडा

दिल मसोसकर रह जाता देखके इन हालातों को

कैसे जश़्न मनाये मुफ़लिस इन बर्फिली रातों को

चलता गीत-गुंज के नाम पे अक्सर यहाँ करुण-क्रंदन

और सहे वो तानाशाही उनको मिला भित्ति-भ्रंशन

कहने को स्वातंत्र्य मिला है पर बंधक है मानवता

आजादी की सदी गयी पर मिटी कहाॅं मन की लघुता

दुधिया रंग जब लिये ओस अठखेलियाँ करने आयी है

मेरे दिल में पड़ते छाले माँगे सदा दुहाई है

सर्द हवाएँ उतर रगों में रुधिर श्वेत कर जाती हैं

अहो! विधाता कौन निभाता सत्य-स्नेह की थाती है

जीत है सिर्फ़ दिखावे की मानवता तो बस हारी है


अंतिमा सिंह "गोरखपुरी"

तहसील- गोला बाजार

जनपद- गोरखपुर। 



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