कोई भी देश आत्मसम्मान के साथ तभी खड़ा हो सकता जब उसका कृषि तथा खाद्यान उत्पादन में आत्मनिर्भरता हो : लालबहादुर शास्त्री जी


     !! कृषि आत्मनिर्भरता औऱ कृषि विकास"!! 

     !!योगदान एवं आत्मसम्मान " डॉ. शास्त्री जी।!! 

प्रस्तावना :- कृषि जीवन का आधार हैं। अर्थात कृषि के बिना जीवन की सफल कल्पना मात्र नही की जा सकती हैं। भारत देश प्राचीन काल से ही ऋषि औऱ कृषि परंपरा का देश माना जाता हैं। कृषि का आधार हमारे प्राचीन ग्रंथो मे भी वर्णित हैं। जिसका उल्लेख ऋग्वेद में तथा मौसम वैज्ञानिक महाकवि घाघ न अपनी रचनाओ में इसके महत्व को वर्णित किया हैं और खेती को सबसे अच्छा साधन माना हैं!

भारत जैव विविधता, जलवायु विविधिता, प्राकृतिक संसाधनों की अपार संभावना के साथ-साथ खेती किसानी में अपार संभावना का देश  हैं।, परंतु  गुलामी की जंजीरो से आजाद होने के पश्चात भारत देश खाद्यान उत्पादन में आत्मनिर्भर नही था। इसके साथ ही साथ भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर थी। देश में सिंचाई के साधन विकशित नही थे। उस समय की कृषि को मानसून का जुवा कहा जाता था। 

अर्थात यह कहना कोई अतिशयोक्ति नही होगी कि भारतीय कृषि की वह दशा निर्यातमुखी न होकर निर्वाहमुखी भी नही थी।

आजादी के बाद देश मे जनसंख्या मात्र 36करोड़ थी। परंतु भारत के पास उस जनसंख्या के कुसल भरण पोषण के लिए पर्याप्त खाद्यान निर्भरता नही थी। भारत देश मे गरीबी की दशा को जब गाजीपुर के सांसद विश्वनाथ प्रताप गहमरी जी ने जब संसद के कार्यवाही सदन मे यह बताया की भारत के पूर्वांचल मे गरीबी और राशन की इस कदर कमी है कि लोग पशुओ के गोबर से अनाज के अवशेष को धुलकर उसके पिसे हुए आटे से अपना पेट पालने का कार्य करती है, इस बात को सुनकर पुरा सदन आश्चर्य चकित रह गया। यह स्थिति प्राचीन भारत की थी। 

 सन 1962-63 के दौर में सरकार ने अपने देश के नागरिको को राशन मुहैया कराने हेतु अमेरिकी देश से 4 साल के लिए पब्लिक लॉ-480 के अंतर्गत लाल गेहूँ की आपूर्ति भारत मे समुद्री मार्ग के रास्ते करने के लिए करार किया। उस समय ज्यो ही लाल गेहूं से भरे जहाज समुद्री मार्ग के द्वरा भारतीयों तट पे पहुचता था, वही से तुरंत विभिन्न राज्यो को भेज दिया जाता था। इस प्रणाली को #"शीप टू माउथ#" की संज्ञा दी गयी।

सन 1964-65 में पाकिस्तान से युद्ध होने के बीच ही अमेरिकी  राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन ने शास्त्री जी को धमकी दी, कि अगर आपने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध  समाप्त नहीं किया, तो हम आपको पीएल 480 के तहत जो लाल गेहूँ भेजते हैं, उसकी आपूर्ति को तत्काल प्रभाव से बंद कर देंगे। उस समय भारत गेहूँ के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था। शास्त्री जी को ये बात बहुत नागवार तथा चुभी,क्योंकि वो एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उन्होंने देशवासियों से कहा कि हम हफ़्ते में एक वक्त भोजन नहीं करेंगे। जियेंगे तो शान से नही तो भूखे मर जायेंगे, बेज्जत की तरह नही जीयेंगे। 

लेकिन इस अपील को आम जनमानस से कहने से पहले, उन्होंने अपनी माँ ललिता शास्त्री से कहा कि क्या आप ऐसा कर सकती हैं। आज शाम हमारे यहाँ खाना न बने। मैं कल देशवासियों से एक वक्त का खाना न खाने की अपील करने जा रहा हूँ। "मैं देखना चाहता हूँ कि मेरे बच्चे भूखे रह सकते हैं या नहीं। जब उन्होंने देख लिया कि हम लोग एक वक्त बिना खाने के रह सकते हैं, तो उन्होंने देशवासियों से भी ऐसा करने के लिए अपील किया। 

देश 1964-65 में डॉ शास्त्री जी के मंत्रिमंडल में ही उस समय के  तत्कालीन कृषि मंत्री सी सुब्र्यान्यम स्वामी जी थे। इस ब्यथा से देश को उबारने हेतु, देश में पहली बार न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) लाने का प्रस्ताव, APMC (एग्रीकल्चर  प्रोडक्ट मार्केटिंग कमेटी) सहित, मंडियों की स्थापना का विचार, FCI(food corporation of india) से लेकर सिचाई सुविधाओं का विकास के साथ -साथ उर्वरक कारखानों की स्थापना का का माडल देश मे लाया जाता हैं!

इसका श्रेय स्वामी जी तथा शास्त्री जी को ही जाता है। जनसंख्या मे धीरे धीरे बृद्धि के परिणाम स्वरूप अनाज की माँग बढ़ने लगी। जिसके फल स्वरूप देश मे हरित क्रांति की नीव पड़ी। 

सन (1963-1964) में भारत सरकार के तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री सी सुब्रमण्यम स्वामी, कृषि सचिव शिवरमन जी तथा सुप्रशिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ एम एस स्वामीनाथन जी, डॉ रामधन सिंह ने अमेरिका के रॉकफेलर फाउंडेसन की सहायता से बौने गेहू की चार उन्नतशील किस्मे सोनारा 64, सोनारा 63, लरमा रोजो, मायो 64 किस्मो के 100 किलोग्राम बीज अमेरिकी सरकार से आयात किया तथा उस उन्नतशील प्रजाति के बीजो का परीक्षण दिल्ली, लुधियाना, कानपुर, पंतनगर सहित देश के अन्य कोने में उन्नत शस्य एवं प्रसार क्रियाविधियों के द्वारा कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि फर्मो पे वैज्ञानिकों के अनुसंशा और देखरेख में किया गया। इन परीक्षण के फलस्वरूप 4 मीट्रिक टन/हेक्टेयर उपज प्राप्त हुई। जबकि इसकी अपेक्षाकृत भारतीय जातियों की उत्पादन क्षमता उस समय मात्र  2.5 मीट्रिक  टन/हेक्टेयर से अधिक नही प्राप्त होती थी। इन बौनी जातियों के सफलता पूर्वक परीक्षण से देश के कृषि और कृषि वैज्ञानिक को एक आशा की किरण दिखाई दी। इन बौनी जातियों की भारतीय मृदा में सफलता पूर्वक उग सकने की क्षमता ने कृषि को बल प्रदान किया इसको दृषिगट रखते हुए सन 1966 में भारत सरकार ने मैक्सिको से गेहू की बौनी प्रजाति के उन्नतशील किस्म  लरमा रोजो व सोनारा -64 सहित  अन्य बैनी प्रजातियों का 1000 टन बीज आयात किया गया। उसी  वर्ष गेहू के साथ साथ बौने धान की प्रजातियों टाइचून नेटिव (T N-1) का आयात फिलीपींस तथा ताइवान देशों से जबकि भारत भारतीय वैज्ञानिक ने मक्का, बाजरा तथा ज्वार की उन्नतशील किस्मे विकसित करके भारतीय किसानों को उपलब्ध कराया। भारत के सुप्रशिद्ध कृषि वैज्ञानिक, भारत मे हरित क्रांति के जनक डॉ एम एस स्वामीनाथन जी ने संकरण द्वारा कल्याण सोना और सोनालिका जैशी बौनी प्रजातिया भारत मे विकशित की इन सम्मिलित खोजो, प्रयाश,और प्रयोगों के साथ साथ उन्नत शस्य क्रिया विधियों के प्रयोग के साथ अन्नतदाता किसानों की श्रमशीलता के फलस्वरू सन 1967 -1968) में देश के खाद्यान उत्पादन में एकाएक चमत्कारिक बृद्धि हुई, जिससे 1968 में पहली बार भारत का कुल खाद्यान उत्पादन 120 लाख टन से 50 लाख टन की बढ़त के साथ कुल 170 लाख टन प्राप्त हुआ। इस  चमत्कारी उत्पादन के प्रभाव को अमेरिका के बैज्ञानिक डॉ विलियम गाड़ ने हरित क्रांति शब्द की उपमा से संबोधित किया। विश्व मे हरित क्रांति के जनक डॉ नार्मन इ बोरलॉग तथा भारतीय परिपेक्ष्य में हरित क्रांति के जनक डॉ एम एस स्वामीनाथन जी को माना जाता है

इस उपलब्धि से भारत की पहली बार खाद्यान उत्पादन मेंं आत्मनिर्भरता आयी।

महात्मा गांधी जी ने सही ही कहा था 

आज भी देश की 65 % जनसंख्या कही न कही कृषि से संबंधित है आज देश मे 44% लोग रोजगार के लिए खेती पर निर्भर है ऐशी स्थिती में कृषि एक महत्वपूर्ण घटक है जिसमे किशी प्रकार की गिरावट देश की 65 % जनसंख्या को प्रभावित कर सकता है  आज देश की ग्रामीण आबादी का 64% प्रतिशत लोग खेतिहर मज़दूर है जबकि शेष 36% कामगार मजदूर खेती से इतर दूसरे व्यवस्था में लगे हुए है। आज निश्चित रूप से अगर देश मे हरित क्रांति की सफलता, देश के कृषि वैज्ञानिकों का शोध, और किसान भाइयो की श्रमशीलता का प्रतिफल ही है कि आज हम इस विकट संकट में भी प्रत्येक नागरिक को जीने और खाने के लिए सरकार खाद्यान उपलब्ध करा पा रही है जिस से भारत देश न केवल खाद्यान उत्पादन मर आत्मनिर्भर बना हुआ है बल्कि दूसरे देशों को भी निर्यात कर रहा है साथ ही साथ इस कोरोना संकट में भी देश के हर नागरिक को खाद्य सुरक्षा की पूरी गारंटी दे रहा है।

भारत की कृषि अब निर्वाह्नमुखी न होकर निर्यातोन्मुखी की ओर अग्रसर 

लेखक।

कल्याण सिंह (गोल्ड मेडलिस्ट)

महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी।

आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रदौगिकी विश्विद्यालय कुमारगंज अयोध्या।



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