अनाज की असली जगह गोदाम और कोठार नहीं बल्कि भूखे पेट होते हैं---



राष्ट्रीय पोषण जागरूकता माह-सितंबर  :-

अनाज की असली जगह गोदाम, कोठार और बेयर हाउस नहीं होते हैं बल्कि भूखे पेट होते हैं। हमारे नीति नियंताओं के अंदर यह समझदारी विकसित होने में लगभग 66 वर्ष लग गए। देर से ही सही सर्वोच्च न्यायालय की बार-बार डॉट फटकार के बाद वर्ष 2013 मे हर पेट को भूख से आजादी दिलाने के संकल्प के साथ संसद द्वारा बहुप्रतिक्षित और ऐतिहासिक खाद्य सुरक्षा कानून बनाया गया। अपने कार्यकाल की अवसान बेला पर डॉ मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा कानून बनाना ऐतिहासिक और क्रांतिकारी कदम था। खाद्य सुरक्षा कानून के अस्तित्व में आने से वास्तव में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 को व्यवहारिकता के धरातल पर वास्तव मे जीवंतता मिलीं और इस अनुच्छेद का खोखला पन दूर हुआ ।संविधान के अनुच्छेद 21 मे कहा गया है कि-प्रत्येक भारतीय को जिन्दा रहने का अधिकार है (Every Indian citizen has to alive )। जिन्दा रहने का अधिकार तभी सार्थक परिणति तक पहुंच सकता हैं जब आवश्यक खाद्य पदार्थों की निरंतर उपलब्धता और सुलभता हर भारतीय नागरिक तक सुनिश्चित हो। खाद्य पदार्थों के उत्पादन की दृष्टि से हम सत्तर के दशक से ही आत्मनिर्भर होने लगें थे। हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, नीली क्रांति,पीली क्रांति, गुलाबी क्रांति और इन्द्रधनुष क्रांति के माध्यम से देश के किसानों ने अनाज, फल, दूध, सब्जी, तेल, मसाले और अन्य खाद्य पदार्थों  का भरपूर उत्पादन किया। जिसके कारण इन सभी क्षेत्रों में भारत न केवल आत्मनिर्भर हो गया बल्कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इस देश का किसान कठोर मेहनत करते हुए देश की कुल आवश्यकता से दो गुना अनाज, फल, दूध, सब्जी तेल, मसाले और अन्य खाद्य पदार्थों को पैदा कर रहा है। परन्तु कालाबाजारी,जमाखोरी, मुनाफाखोरी, भ्रष्ट कुप्रबंधन और  पारदर्शी तथा न्यायोचित वितरण प्रणाली के अभाव में देश की एक बहुत बडी आबादी आज भी आवश्यक पोषण युक्त भोजन से महरूम है। इसके अतिरिक्त देश की बड़ी आबादी ऐसी हैं जिसे येन केन प्रकारेण भोजन तो नसीब हो जाता हैं परन्तु उस भोजन में पौष्टिकता के नाम पर लगभग कुछ भी नहीं रहता हैं। कुछ संस्थाओं के अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग उन्नीस करोड़ लोग आज भी रात को भूखे पेट सोने के लिए विवश हैं। कभी-कभी समाचार पत्रों के माध्यम से जमाखोरी और मुनाफाखोरी का वीभत्स रूप देखने को मिलता है जब हजारों टन अनाज गोदाम में सडने का सचित्र समाचार मिलता है। एक तरफ जहां अनाज सडने की खबरें मिलती हैं वहीं बिहार, झारखंड और उड़ीसा इत्यादि से भूख से दम तोड़ने वाले परिवारों का सचित्र समाचार इंसानियत को शर्मसार कर देता है। जबकि पूरे देश में सरकार के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों के साथ सांठ-गांठ कर राशन माफियाओ का बडा समूह बेशुमार काली कमाई करता रहता है। राशन माफियाओ और सरकार में बैठे भ्रष्ट कारकुनो के मिले-जुले मुनाफा खोरी के खेल को खत्म किए बिना पोषण जागरूकता कार्यक्रम चलाना बिल्कुल बेमानी होगा। लोगों के बेहतर जीवन का आकलन करने वाली विश्व की जानी-मानी संस्था ग्लोबल हंगर इंडेक्स और भारत सरकार की फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट 2020  के अनुसार भारत में कुपोषण की स्थितियां भयावह है। इन दोनों की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं में रक्त अल्पता ( एनीमिया) बच्चों में कुपोषण बढता ही जा रहा है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार कुपोषण के मामले में भारत 107 देशो में 94 स्थान पर है। विश्व में आर्थिक महाशक्ति बनने की इच्छा रखने वाले  भारत की स्थिति तुलनात्मक रूप से अपने पडोसी देशो श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश से भी बदत्तर है। कुपोषण की भयावह स्थिति से निपटने के लिए शेयर बाजार में चढते-उतरते शेयर सूचकांक के आधार पर विकास का आकलन करने की प्रवृत्ति से बाहर निकलना होगा। विकास को महज आर्थिक समृद्धि जैसे मात्रात्मक चरों के आधार पर समझना कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के साथ भद्दा मजाक है। विकास एक व्यापक और गुणात्मक अवधारणा हैं इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसे गुणात्मक चरो पर भी ध्यान देना पड़ता है।   

भारत सहित तिसरी दुनिया के अधिकांश देशों में कुपोषण आज भी एक गम्भीर समस्या बनी हुई है। इस समस्या को ध्यान में रखते हुए भारत में 1982 से सितम्बर के प्रथम सप्ताह को राष्ट्रीय पोषण सप्ताह के रूप में मनाया जाता हैं और वर्ष 2018 से सम्पूर्ण सितम्बर माह को पोषण माह के रूप में मनाया जाता हैं। कल्याणकारी राज्य होने के नाते इस महीने सरकार कुपोषण से उबारने के लिए पोषण जागरूकता अभियान चलाती हैं। इस अभियान के तहत खाद्य पदार्थों की पोषकता के आधार पर जानकारी दी जाती हैं और स्वस्थ्य जीवन शैली अपनाने पर जोर दिया जाता है। वस्तुतः भारत सहित तिसरी दुनिया के अधिकांश देशों में कुपोषण के दो प्रमुख कारण नजर आते हैं। पहता भारत में एक बडी आबादी किसी तरह जीवन गुजर बसर कर रही जिसके पास पोषक तत्वों को खरीदने की क्षमता नहीं है। अभाव ग्रस्त जीवन जी रहे लोगों के पास धन का अभाव है और निरंतर बढती महंगाई के कारण पोषणयुक्त खाद्य-पदार्थों को खरीदना इस आबादी के लिए और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता हैं। कुपोषण का दूसरा कारण अशिक्षा और स्वास्थ्य जागरूकता का अभाव है। स्वास्थ्य जागरूकता के अभाव के कारण अधिकांश सम्पन्न परिवारों में कुपोषण आम बात है। दिनचर्या में लापरवाही और बेतरतीब खान-पान शैली से भी स्वास्थ्य में गिरावट और कुपोषण बढता जा रहा हैं। इसके अतिरिक्त आम तौर पर हमारे घरों में भोजन स्वाद को ध्यान में रखते हुए बनाया जाता है पोषक तत्वों को ध्यान में रखकर भोजन गिने चुने घरों में पकाया जाता हैं। देश को कुपोषण से उबारने के लिए महिला या पुरुष रसोइया को सबसे ज्यादा शिक्षित प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। पोषक तत्वों के अनुसार साप्ताहिक भोजन चार्ट किसी भी रसोई घर में नहीं पाया जाता हैं। दुनिया में खाद्य पदार्थों की बर्बादी भी एक बडी समस्या है। शादी विवाह के उत्सवों और समारोहों में खाद्य पदार्थों की बुरी तरह बर्बादी होती हैं। एक अनुमान के मुताबिक एक भारतीय औसतन 50 किग्रा अनाज की बर्बादी हर साल करता है। एक और अनुमान के अनुसार एक वर्ष में सम्पूर्ण भारत में जितना खाद्यान्न पदार्थों की बर्बादी होती हैं उतने में आस्ट्रेलिया महाद्वीप में एक वर्ष तक लोग भोजन कर सकते। इसलिए इस सितम्बर के पोषण माह में हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि-हम थाली में उतना ही भोजन ग्रहण करें जितना हमारी भूख हो और थाली में एक भी दाना बर्बाद नहीं होना चाहिए। एक विद्वान के अनुसार खाद्य पदार्थों की बर्बादी भोजन के मौलिक अधिकार की अवमानना हैं और खाद्य पदार्थों की बर्बादी करोडों लोगों के कुपोषण का कारण हैं। इसलिए जन जागरूकता लाकर भोजन की बर्बादी रोकना कुपोषण मुक्ति की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।  


मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता 

बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ।



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