बदलते बिहार का जनादेश : कौन जीता, कौन हारा और क्यों—पूरा विश्लेषण


बिहार चुनाव 2025 की बड़ी तस्वीर : किसको लाभ, किसको नुकसान और कौन बनाएगा सरकार

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 ने राज्य की राजनीति में एक ऐतिहासिक बदलाव की पटकथा लिख दी है। इस चुनाव में जिस तरह एनडीए ने भारी बहुमत के साथ लगभग 202 सीटें अपने नाम कीं, उसने न केवल महागठबंधन को गहरी निराशा दी बल्कि पूरे राजनीतिक माहौल को एक बार फिर से भाजपा–जदयू गठजोड़ के पक्ष में मोड़ दिया। महागठबंधन, जिसमें राजद सबसे बड़ा घटक दल था, मात्र 34 के आसपास सीटों पर सिमट कर रह गया। बिहार की राजनीति में वर्षों तक जातीय आधार पर मजबूत माने जाने वाले दलों में भी इस बार ऐसी गिरावट दर्ज की गई, जिसकी उम्मीद स्वयं उनके समर्थकों को भी नहीं थी। यह चुनाव साफ संदेश देता है कि राज्य का मतदाता अब सिर्फ परंपरागत राजनीति पर नहीं, बल्कि विकास, स्थिरता, सुधार, कल्याण और प्रशासनिक विश्वसनीयता जैसे मुद्दों पर भी खुलकर मतदान कर रहा है।

सबसे पहले अगर जीत-हार की तस्वीर का विश्लेषण किया जाए तो भाजपा और जदयू दोनों ने शानदार प्रदर्शन किया। भाजपा ने लगभग 89 सीटें और जदयू ने करीब 85 सीटें जीतकर एनडीए की जीत को सुनिश्चित बनाया। इसके अलावा गठबंधन के अन्य घटक दलों ने भी अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन किया और वोटों के बिखराव को रोकने में अहम भूमिका निभाई। दूसरी ओर, राजद का यह चुनाव सबसे कमजोर प्रदर्शनों में से एक रहा। पार्टी अपने पारंपरिक गढ़ों में भी पिछड़ी और उसे सिर्फ लगभग 25 सीटों से संतोष करना पड़ा। महागठबंधन के अन्य दल कांग्रेस और वाम मोर्चा भी चुनावी जंग में अपनी पैठ बनाए रखने में असफल रहे। छोटे दलों में वीआईपी जैसी पार्टियों के प्रत्याशी जातीय अपील के बावजूद जीत हासिल नहीं कर सके और उनका वोटबैंक भी बंटा हुआ नज़र आया।

चुनावी नतीजों ने यह लगभग स्पष्ट कर दिया है कि बिहार में एनडीए की ही सरकार बनने जा रही है। मुख्यमंत्री के तौर पर सबसे प्रबल दावेदार जदयू नेता नीतीश कुमार हैं, जिनकी प्रशासनिक छवि, राजनीतिक अनुभव और सामाजिक संतुलन साधने की क्षमता इस चुनाव में भी निर्णायक कारक साबित हुई। नीतीश कुमार की छवि अभी भी एक ऐसे नेता की मानी जाती है जो विकास, सुशासन और सामाजिक समरसता के मुद्दों पर सबसे प्रभावी ढंग से जनता तक पहुँचते हैं। भाजपा की मजबूत उपस्थिति और गठबंधन के भीतर उनकी स्वीकार्यता ने भी उन्हें सबसे संभावित मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित कर दिया है।

अगर चुनाव के जातीय समीकरणों का विश्लेषण किया जाए तो यह चुनाव इस मायने में सबसे रोचक रहा कि दशकों से बिहार की राजनीति को प्रभावित करने वाला एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण इस बार अपेक्षित प्रतिशत में परिवर्तित नहीं हो पाया। यादव मतदाता अभी भी काफी हद तक राजद के साथ दिखे, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) ने इस बार बड़ी संख्या में एनडीए की ओर झुकाव दिखाया। बिहार राज्य में हाल के वर्षों में हुए जातीय सर्वेक्षणों के अनुसार EBC की हिस्सेदारी लगभग 36% और OBC की लगभग 27% है, जो कुल मिलाकर 60% से अधिक का विशाल वोट समूह बनाते हैं। इन वर्गों में जदयू और भाजपा की पकड़ बेहद मजबूत दिखी। इसी ने महागठबंधन की बड़े पैमाने पर वोट पाने की संभावनाओं को सीमित कर दिया।

दलित समुदाय, विशेषकर पासवान समाज में भी एनडीए ने अच्छी पकड़ बनाई। लोजपा (रामविलास) का एनडीए के साथ तालमेल और भाजपा की सामाजिक अभियानों में सक्रियता ने इस समुदाय में बेहतर समर्थन दिया। कुशवाहा, कोइरी, बनिया और अन्य कई जातियों में भी एनडीए की पैठ गहरी रही। जबकि महागठबंधन जातीय रूप से सिर्फ कुछ वोट बैंक पर निर्भर होकर चल रहा था, एनडीए ने हर जाति में अपनी मजबूत मौजूदगी स्थापित की।

मुस्लिम मतदाता पर भी पहली बार इस स्तर पर विभाजन देखा गया। बिहार में मुस्लिम वोट परंपरागत रूप से महागठबंधन का आधार माना जाता रहा है, लेकिन इस चुनाव में एनडीए की ओर भी कुछ प्रतिशत मुस्लिम वोट झुकता दिखा। कई मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में एनडीए उम्मीदवारों को अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन करने का मौका मिला। यह संकेत है कि धर्म और जाति आधारित वोटिंग पैटर्न धीरे-धीरे बदल रहा है और मतदाता अब मुद्दों को प्राथमिकता देने लगा है।

चुनाव का एक बड़ा पहलू रहा महिलाओं का बढ़ता मतदान और उनकी प्राथमिकताओं में आया परिवर्तन। नीतीश कुमार की महिला सशक्तिकरण पर आधारित योजनाएँ—जैसे छात्राओं के लिए प्रोत्साहन, आर्थिक सहायता, स्वास्थ्य और सुरक्षा से जुड़ी पहलें—महिला वोटरों को आकर्षित करने में बहुत प्रभावी रहीं। इस बार महिला मतदाताओं की मतदान दर पुरुषों से अधिक दर्ज की गई और उनका निर्णायक रुझान एनडीए की ओर देखा गया। महिलाओं ने मुद्दों पर आधारित मतदान किया, जिसमें शराबबंदी, सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक लाभ जैसी योजनाएँ प्रमुख रहीं।

युवा मतदाताओं ने भी इस चुनाव में बड़ा योगदान दिया। रोजगार, शिक्षा, कौशल विकास, डिजिटल सुविधाएँ और सुचारु शासन व्यवस्था जैसी उम्मीदों के कारण युवाओं का झुकाव विकास और स्थिरता की ओर रहा। इस वर्ग ने भी एनडीए को बड़ी मजबूती प्रदान की। महागठबंधन युवाओं को आकर्षित करने में उतनी मजबूती से नहीं उतर पाया, विशेषकर क्योंकि उनकी ओर से रोजगार पर किए गए दावे पर्याप्त ठोस और व्यावहारिक नहीं प्रतीत हुए।

चुनाव के दौरान मतदाता सूची में विशेष संशोधन यानी SIR को लेकर बड़ा विवाद भी रहा। विपक्ष ने इसे विशेष समुदायों के वोट हटाने की नीति करार दिया। हालांकि यह मुद्दा सार्वजनिक विमर्श में आया, परंतु चुनावी परिणाम बताते हैं कि यह मुद्दा मतदाता मानस पर उतना प्रभावशाली नहीं हो सका जितना महागठबंधन उम्मीद कर रहा था। इसके उलट एनडीए ने इस मुद्दे को लेकर कोई नकारात्मक बहस नहीं होने दी और विकास तथा स्थिर शासन जैसे बड़े मुद्दों पर फोकस बनाए रखा।

चुनाव में गठबंधन की रणनीति भी महत्वपूर्ण रही। एनडीए ने सीट बंटवारे से लेकर उम्मीदवार चयन तक, पूरी चुनावी प्रक्रिया में एकजुटता बनाए रखी, जबकि महागठबंधन में यह सामंजस्य कहीं-कहीं टूटता हुआ दिखा। कई सीटों पर उम्मीदवारों के चयन को लेकर महागठबंधन के भीतर असहमति की खबरें भी आती रहीं। इसके विपरीत, एनडीए ने सामाजिक संतुलन, जातीय प्रतिनिधित्व और स्थानीय मुद्दों के आधार पर उम्मीदवार उतारकर चुनावी राजनीति में गहरी पकड़ बनाए रखी।

कुल मिलाकर, बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का परिणाम सिर्फ एक सरकार का चयन नहीं है बल्कि यह जनता की बदलती सोच, जातीय राजनीति की सीमाएँ, विकास और सुशासन की बढ़ती अपेक्षाएँ, और महिलाओं व युवाओं की नई भूमिका का स्पष्ट प्रमाण है। यह चुनाव बताता है कि बिहार की राजनीति अब पारंपरिक जातीय ढाँचों से आगे बढ़ चुकी है और उसमें नई दिशा, नए मुद्दे और नई प्राथमिकताएँ उभर रही हैं। एनडीए की जीत इस परिवर्तन की सबसे बड़ी मिसाल है। आने वाले वर्षों में बिहार की राजनीति में विकास, महिला सशक्तिकरण, शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय के मुद्दे और अधिक केंद्र में आएंगे। नीतीश कुमार के नेतृत्व में बनने वाली नई सरकार से जनता को स्थिरता, पारदर्शिता और एक समन्वित प्रशासन की उम्मीदें और बढ़ गई हैं।

अजय कुमार सिंह ✍️ 

संपादक 

परिवर्तन चक्र, बलिया (उ.प्र.)




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