15 अगस्त 2025 के अवसर पर युवा कवि अभिषेक मिश्रा ने अपनी नवीन कविता “गांव से ग्लोबल तक” के माध्यम से देश के गौरवशाली इतिहास और आधुनिक भारत के तेज़ विकास को एक नई परिप्रेक्ष्य से प्रस्तुत किया है। यह कविता न केवल आज़ादी के संघर्ष की गूंज है, बल्कि वह उम्मीद और संकल्प भी है जो आज के युवा पीढ़ी के दिलों में देश के लिए जलती है।
अभिषेक की लेखनी में गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू से लेकर वैश्विक सफलता की चमक तक का सफ़र समाहित है। कविता में किसानों, स्वतंत्रता सेनानियों, वैज्ञानिकों और युवाओं की मेहनत, संघर्ष और उपलब्धियाँ बड़ी ही सहजता और प्रभावशाली भाषा में प्रस्तुत की गई हैं।
“गाँव से ग्लोबल तक” किसी इतिहास की किताब से उद्धृत नहीं, बल्कि एक युवा कवि की व्यक्तिगत अनुभूति और देश के प्रति गहरे प्रेम का दस्तावेज़ है। अभिषेक मिश्रा के अनुसार, यह कविता हर भारतीय को अपने अतीत को याद करने और भविष्य के सपनों को साकार करने के लिए प्रेरित करती है।
इस कविता के साथ अभिषेक मिश्रा ने एक ऐसा संदेश दिया है, जो आज के डिजिटल युग में भी अपने सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों को बनाये रखने की चुनौती को दर्शाता है। उनका मानना है कि देश की असली ताकत उसकी मिट्टी और उसकी जनता की इच्छाशक्ति में निहित है।
15 अगस्त के इस पावन अवसर पर प्रस्तुत यह कविता युवा कवि की संवेदनशीलता और देशभक्ति का प्रतीक है, जो भारतीय साहित्य के नए आयाम खोलती है।
*गांव से ग्लोबल तक*
*(स्वतंत्रता दिवस विशेष)*
धान की खुशबू, मिट्टी की सौंधी,
पगडंडी का मीठा गान,
बरगद, पीपल, नीम की छाया,
झोंपड़ियों में सपनों का मान।
बैलगाड़ी की धीमी चाल में,
कच्चे आँगन का था सिंगार,
हाट-बाज़ार की चहल-पहल में,
गूँजते थे लोक-पुकार।
पर आई जब गुलामी की आँधी,
सूख गए खेतों के गुलाल,
माँ के आँचल में लहराते सपने,
टूट गए जैसे मिट्टी के लाल।
लाठी, गोली, कोड़े, जंजीरें,
रोटी आधी, भूख का गाँव,
फिर भी भारत–माँ के बेटों ने,
प्राण दिए, पर न झुकाया नाम।
चंपारण में उठी जो आंधी,
नमक सत्याग्रह ज्वाला बनी,
भगत, सुखदेव, आज़ाद की कुर्बानी,
जन-जन की मिसाल बनी।
सुभाष के नाद गगन में गूँजे,
"तुम मुझे ख़ून दो" का गीत,
वीर जवानों के रक्त से फिर,
लाल हुआ भारत का मीत।
15 अगस्त की भोर आई जब,
सूरज ने सोने रंग बिखेरा,
स्वतंत्र ध्वज नभ में लहराया,
पर सफ़र का था लंबा डेरा।
गरीबी, अशिक्षा, भूख, बीमारी,
अब भी थीं राह में काँटे,
पर गाँव के दृढ़ किसानों ने,
पसीने से सोना बिखराते।
हाथ में हल, आँखों में सपना,
गाँव ने मेहनत की मिसाल गढ़ी,
हरित–श्वेत क्रांति की बगिया से,
धरती की किस्मत बदल पड़ी।
शिक्षा की ज्योति जली जब,
ज्ञान की नदियाँ बह निकलीं,
तकनीक के पंख लगे तो,
भारत की ऊँचाइयाँ दिखीं।
आईटी, चंद्रयान, मंगल-यात्रा,
नभ के द्वार खुले यहाँ,
गाँव की मिट्टी का बेटा भी,
विश्व–विजेता बना जहाँ।
अब किसान का बेटा बनता,
वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर,
गाँव की बेटी खोल रही है,
विश्व मंच पर अपना दफ़्तर।
आज तिरंगे की छाँव तले,
हम खड़े हैं दृढ़ संकल्प लिए,
"गांव से ग्लोबल" की यात्रा में,
हर हिंदुस्तानी ने कदम दिए।
आओ इस आज़ादी पर्व पर,
प्रतिज्ञा हम सब फिर दोहराएँ,
गाँव की मिट्टी से जुड़े रहें हम,
पर दुनिया को भी अपनाएँ।
स्वतंत्रता दिवस के इस पावन अवसर पर प्रस्तुत यह रचना न केवल देशभक्ति की भावना को जागृत करती है, बल्कि हमें हमारे अतीत से जोड़ती है और भविष्य की ओर एक मजबूत, आत्मविश्वासी दृष्टि प्रदान करती है। यह कविता हर भारतीय के दिल में अपने देश के प्रति गर्व और प्रेम की लौ जगाती है।
लेखक परिचय
अभिषेक मिश्रा, बलिया के छोटे से गाँव चकिया के युवा कवि हैं, जिनकी लेखनी में ग्रामीण जीवन की सरलता और देश के प्रति गहरी प्रतिबद्धता झलकती है। अपनी कलम के माध्यम से वे देश के सांस्कृतिक, सामाजिक और भावनात्मक पहलुओं को सजीव रूप में प्रस्तुत करते हैं। ‘गाँव से ग्लोबल तक’ उनकी सोच और जज़्बे का आईना है, जो नई पीढ़ी के सपनों और उम्मीदों को प्रतिबिंबित करता है।
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