बलिया के रामपुर दलनछपरा में सम्मान की प्रतीक्षा में खड़ी है देश के प्रथम राष्ट्रपति की मूर्ति


डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और उनकी धर्मपत्नी की मूर्तियाँ 28 वर्षों से ढकी पड़ी हैं, प्रशासनिक उपेक्षा बनी हुई है सबसे बड़ा सवाल

बलिया। देश को संविधान, गणराज्य और नेतृत्व देने वाले भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की विरासत आज भी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव रामपुर दलनछपरा में सिसक रही है। यहां, जहां एक तरफ देश उन्हें श्रद्धा से याद करता है, वहीं दूसरी ओर उनकी और उनकी पत्नी राजवंशी देवी की मूर्तियाँ 28 वर्षों से उद्घाटन की बाट जोह रही हैं—चेहरों पर कपड़ा ढका है, जैसे इतिहास को जानबूझकर ढंक दिया गया हो।

इतिहास से सीधा नाता: यह सिर्फ गांव नहीं, राष्ट्र की स्मृति है

बलिया जनपद का यह गांव कोई सामान्य भूभाग नहीं है। यही वह स्थान है जहां डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की धर्मपत्नी श्रीमती राजवंशी देवी का जन्म हुआ था। यह उनका ससुराल रहा। आज भी उनके वंशज—नाती-पोते उसी गांव में साधारण जीवन जीते हुए, अपने पूर्वजों की स्मृति को संरक्षित करने के प्रयास में लगे हैं।

स्व. चुन्नू जी: एक सपने को आकार देने वाले व्यक्ति

गांव के प्रतिष्ठित समाजसेवी और चार बार ग्राम प्रधान रह चुके स्वर्गीय सर्वदेव प्रसाद ‘चुन्नू’ ने एक दुर्लभ पहल की।
उन्होंने—

  • राजवंशी देवी की पैतृक भूमि पर “आदर्श ग्राम विकास संस्थान” की स्थापना की
  • बालक-बालिकाओं की शिक्षा हेतु स्कूल बनवाया
  • धार्मिक आस्था के लिए एक भव्य मंदिर की नींव रखी
  • और सबसे अहम, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद व राजवंशी देवी की संगमरमर की मूर्तियाँ राजनैतिक एवं पेंशन विभाग द्वारा स्थापित कराईं।

यह कार्य केवल स्मृति निर्माण नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक मिशन था—जिससे राष्ट्र का इतिहास गांवों तक जीवित रह सके।

मूर्ति बनी प्रतीक्षा की प्रतीक — उद्घाटन अब तक अधूरा

परंतु, दुखद पहलू यह है कि 1997 में स्थापित मूर्तियाँ आज भी ढकी हुई हैं।

28 वर्षों में न तो उद्घाटन हुआ, न ही सरकारों ने कोई गंभीर संज्ञान लिया।

स्व. चुन्नू जी ने कई बार—

  • जिला प्रशासन से लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय
  • केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय
  • और स्थानीय जनप्रतिनिधियों तक
    गुहार लगाई, पत्र भेजे, मीटिंग कीं…
    लेकिन परिणाम वही—खामोशी, उपेक्षा और उदासीनता।

वे अपने जीवन के अंतिम दिनों तक इस उम्मीद में रहे कि एक दिन उद्घाटन अवश्य होगा, लेकिन यह सपना अधूरा ही रह गया।

अब बेटे संभाल रहे हैं विरासत, पर सिस्टम अब भी मौन

पिता की स्मृति और गांव के गौरव को बचाए रखने की जिम्मेदारी अब उनके बेटों ने उठा रखी है।
उन्होंने—

  • 20 से अधिक बार जिला व राज्य प्रशासन को पत्र भेजे
  • केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय को ज्ञापन सौंपा
  • अधिकारियों से व्यक्तिगत रूप से मिले
  • लेकिन हर बार मिला केवल आश्वासन, कभी क्रियान्वयन नहीं।

अधिकारी आए, सर्वे हुए, दस्तावेज तैयार हुए—फिर फाइलें धूल खाती रह गईं।

क्या यह केवल मूर्ति का मामला है? नहीं—यह हमारी चेतना का प्रश्न है!

“जब देश के प्रथम राष्ट्रपति की मूर्ति भी बिना उद्घाटन के रह जाए, तो यह केवल एक गांव की उपेक्षा नहीं, पूरे राष्ट्र की आत्मा पर प्रश्नचिह्न है।”

यह कोई निजी स्मृति नहीं—बल्कि राष्ट्रीय गौरव से जुड़ा विषय है।
यह मूर्ति हमारी सामूहिक स्मृति और सम्मान भावना की परीक्षा बन गई है।

जनता की स्पष्ट मांगें :-

  1. मूर्ति का तत्काल उद्घाटन हो—शासन के उच्चतम स्तर से
  2. स्थल को “राष्ट्रीय स्मृति स्थल” का दर्जा मिले
  3. गांव को “राजेन्द्र स्मृति ग्राम” घोषित किया जाए
  4. शैक्षिक-सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना हो, जिसमें डॉ. प्रसाद के विचारों को स्थान मिले

गांव के बुज़ुर्गों की आंखों में सवाल है...

“इतिहास किताबों से नहीं, सम्मान से जिंदा रहता है। जब वही सम्मान न मिले, तो क्या हम सच में इतिहास से जुड़ पा रहे हैं?” — जनार्दन दुबे, गांव निवासी (103 वर्ष) व राजकिशोर सिंह गांव निवासी (85 वर्ष)

अब समय है—उपेक्षा नहीं, सुधार का

बलिया के रामपुर दलनछपरा गांव की यह कहानी केवल प्रतीक्षा की नहीं, बल्कि संवेदनाओं की जंग है।

यह उस चुप्पी के खिलाफ आवाज़ है, जो 28 वर्षों से इतिहास के चेहरे पर कपड़ा डाल रही है।

क्या देश अब भी इंतजार करेगा, या इतिहास को उसका सम्मान देगा?

✍️ रिपोर्ट: परिवर्तन चक्र समाचार सेवा, बलिया

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