"बलिया के युवा कवि अभिषेक मिश्रा की रचना 'The Earth: Unwritten Story' में Amazon पर प्रकाशित"


बलिया, उत्तर प्रदेश। चकिया गांव के उभरते हुए युवा साहित्यकार अभिषेक मिश्रा ने अपनी सशक्त लेखनी से न केवल जनपद बल्कि पूरे हिंदी साहित्य जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाई है। विश्व पर्यावरण दिवस 2025 के अवसर पर Blue Star Publication द्वारा आयोजित राष्ट्रीय लेखन प्रतियोगिता "The Earth: Unwritten Story" में उनकी रचना को चयनित कर Amazon पर प्रकाशित किया गया है। यह उपलब्धि उनकी रचनात्मक प्रतिभा और विषयों की गहराई से समझ को प्रमाणित करती है।

कम उम्र में ही साहित्य से गहरा जुड़ाव स्थापित करने वाले अभिषेक, सामाजिक चेतना, मानवीय रिश्तों और पारिवारिक मूल्यों को अपनी कविताओं और लेखों के माध्यम से मार्मिकता के साथ प्रस्तुत करते हैं। उनके प्रेरणास्रोत उनके पिता शिवजी मिश्रा हैं, और गांव की मिट्टी से उपजे संवेदनशील दृष्टिकोण ने उनकी रचनाओं को गहराई और सजीवता दी है।

उनकी चर्चित रचनाएं :—

👉"दहेज की मंडी में बिकता बाप"

👉"ऑपरेशन सिंदूर : एक सशक्त उत्तर"

👉"पुरुष सशक्तिकरण की पुकार"

👉"मैं पंछी तेरे आंगन की"

👉"मां : एक जीवन गाथा"

👉"कवि कंगाल, कलम धनवान"

पाठकों के हृदय को झकझोरने का कार्य करती हैं। उनकी लेखनी केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि समाज की अनकही सच्चाइयों का दस्तावेज़ है।

अमर उजाला, मातृभारती, प्रतिलिपि, लिखंतु, स्टोरी मिरर, राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच जैसे प्रतिष्ठित मंचों पर उनकी रचनाएं निरंतर प्रकाशित हो रही हैं, जो यह दर्शाती हैं कि अभिषेक मिश्रा एक सशक्त युवा साहित्यकार के रूप में तेजी से उभर रहे हैं।

उनका साहित्य समाज में चेतना और बदलाव लाने का माध्यम बनता जा रहा है।

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कहानियाँ हैं दबीं हुई सीने के नीचे,

हर दरार में बसी है एक अनकही रीत।

ये धरती नहीं बस ज़मीन का टुकड़ा,

ये है सदीयों से चलती अनकही दास्तों की प्रीत।

"धरती की अनकही दास्तां कविता कवि अभिषेक मिश्रा की एक गहरी संवेदना है, जो हमें हमारी धरती माँ की अनकही पीड़ा और उसकी अपार करुणा से रूबरू कराती है। इस कविता का उद्देश्य केवल प्रकृति की सुंदरता का वर्णन करना नहीं है, बल्कि उस दर्द को सामने लाना है जो धरती हर दिन सहती है पेड़ों की कटाई, नदियों की सूखावट, प्रदूषण और मानव के स्वार्थ के कारण हो रहे विनाश की कराह।

हरियाली की सांसें रोकी हैं,

नदियों की धारा टुटी है।

जिस धरती ने जनम दिया,

वहीं आज सबसे छूटी है।

कवि चाहते हैं कि हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हो रहे पर्यावरणीय क्षरण को समझें, उसकी गंभीरता को महसूस करें और एक संवेदनशील, जिम्मेदार इंसान बनें। यह कविता हमें यह एहसास दिलाती है कि धरती के बिना हमारा अस्तित्व संभव नहीं और अब वक्त है जागने का, संभलने का और प्रकृति की रक्षा का।

पेड़ काटे, पर्वत चीरे,

खुदगर्जी में कितने जीते।

साँसों का व्यापार हुआ अब,

प्रकृति भी अब हमसे रूठी है।

विश्व पर्यावरण दिवस 2025 के अवसर पर यह कविता हमें प्रेरित करती है कि हम सिर्फ शब्दों में नहीं, बल्कि अपने कर्मों में भी प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान दिखाएँ। यही कवि का असली उद्देश्य है धरती की अनकही दास्तां को सबके दिल तक पहुँचाना और एक बेहतर, स्वच्छ, हरित भविष्य की ओर कदम बढ़ाना।

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"धरती की अनकही दास्तां"

(विश्व पर्यावरण दिवस विशेष कविता)

छाँव कहाँ है अब वृक्षों की?

पंछी पूछें थक कर डाली से।

धूप दहकती, छाले पड़ते,

पीड़ा फूटी हर क्यारी से।


कल-कल करती नदियाँ सूखी,

कूड़े की बोली गूंजती है।

जहाँ कंचन-जल बहता था,

वहाँ अब विष की धारा है।


फूल नहीं हैं अब उपवन में,

काँटों का ही राज है यहाँ।

रंग-बिरंगे पर छिन गए,

भ्रमर भटकते आज कहाँ?


धरती माँ की गोद जली है,

सूना सूना हर एक अंग है।

हमने छेड़ा प्रकृति का गीत,

अब बजता है शंख संग्राम।


किसने छीना छाया उसकी?

किसने काटे जीवन के बीज?

किसने लूटा पर्वत श्रृंग?

किसने खोई सच्ची नीज?


हमने ही बाँटा है उसे,

प्लास्टिक की परछाईं से।

विकास के नाम पर लीला,

छिपी हर सच्चाई से।


पर अब भी बचा है कुछ,

बीजों में है प्राण अभी।

धरती की सूनी मिट्टी में,

छुपी है पहचान अभी।


चलो बनें फिर से वटवृक्ष,

जो सबको छाँव दे पाएँ।

धरती के आँसू पोंछ सकें,

इतना तो मानव बन जाएँ।


ना हो सूनी कोई शाख़,

ना पत्ते बिन पवन बहें।

हर कोंपल खिलती जाए,

हर ऋतु में जीवन झलके।


विकास की नई परिभाषा,

प्रकृति से हो मेल हमारी।

जहाँ मशीनें न हों दुश्मन,

हरियाली हो सच्ची यारी।


संघर्ष नहीं, संवाद करें,

धरती से सीखें फिर जीना।

माटी से अपनापन जोड़ें,

आओ फिर से सबको सींचें।

लेखक अभिषेक मिश्रा✍️




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