पिता कोई नाम नहीं, एक एहसास है,
जो परछाईं बन हर पल मेरे पास है।
बचपन में जब पाँव लड़खड़ाए थे,
वो थाम के उँगली चलाते थे।
मैं हँसूं यही कामना लेकर,
ज़ख़्म अपने मन में छुपाते थे।।
कभी सिर पे छत, कभी गीतों में,
हर रूप में साया बन जाते थे।
मैं न गिरूं, यही सोच-सोचकर,
अपने घावों को सह जाते थे।।
पढ़ाई की रातों में नींद नहीं थी
जब पन्नों संग मैं लड़ता था।
चाय की हल्की भाप लिए,
हर सवाल में संग मुस्काते थे।।
मेरी किताबों में जो उजाला था,
उसमें उनकी थकन समाई थी।
मैं जो कुछ भी बन पाया आज,
वो बस उनकी छांव से आई थी।।
जब नौकरी की ओर मैं बढ़ा,
वो बैग मेरा खुद उठाते थे।
भीड़ में पीछे रहते हुए भी,
मुझे सबसे आगे बतलाते थे।।
मेरे नए शहर की रौशनी में,
उनकी आंखों का पानी था।
मैं जो खड़ा था मंचों पर,
वो नीचे बैठा कहानी था।।
जब घर के फ़ैसले भारी लगे,
वो चुपचाप रास्ते दिखाते थे।
न भाषण, न कोई तर्क दिए,
पर मौन में अर्थ समझाते थे।।
उनकी नज़रों का बस एक इशारा,
जैसे ब्रह्म वाक्य बन जाता था।
मैं जो उलझा करता निर्णयों में,
वो उत्तर बनकर आ जाता था।।
आज भी जब जीवन थकता है,
वो दूर कहीं छांव बन जाते हैं।
मैं काँपूं जब भी समय मार से,
वो मन को साहस दिलाते हैं।।
अब कमज़ोर हैं, पर चट्टान से,
हर मौन में शब्द दे जाते हैं।
पिता की परछाईं आज भी मेरे,
हर दिन के संग चल जाते हैं।।
एक परछाईं अब भी साथ चलती है,
ना आवाज़ करती, ना थकती है।
मैं जब झुकता हूँ जीवन से,
वो मेरी पीठ सहला देती है।।
ना पूछती है कुछ, ना टोकती है,
बस मौन में मन समझा देती है।
पिता अब भी मेरे साथ खड़े हैं,
हर दिन मेरी सांसों में बहती है।।
अभिषेक मिश्रा ✍️
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