विकृत और बदरंग होती जा रही है विवाह की मौलिक मान्यताएं और परम्पराएं : गौरव सिंह राठौर



लोभ लालच और बुलेट ट्रेन की रफ्तार से बढती धनलिप्सा ने शादी- व्याह जैसे पवित्र प्रणय और परिणय मिलन के मौलिक, पुरातन और सनातनीय स्वरूप को बुरी तरह बदरंग, वीभत्स और विकृत कर दिया हैं। इसको विकृत और बदरंग करने में लूट-खसोट, दलाली, भ्रष्टाचार और और कमीशनखोरी की कमाई की बदौलत नये-नये दौलतमंद बने समाज के अर्द्ध शहरी और पाश्चात्य मानसिकता से ग्रसित नवदौलतिया लोगों ने सर्वाधिक बढ-चढ कर भूमिका निभाई है। सम्भवतः आदिम युग के असभ्य, अनपढ़, बर्बर तथा घुमक्कड़ी जीवन जीने वाले कबिलाई मानव के जीवन मे जब स्थिरता और स्थायित्व आया तथा घुमक्कड़ी जीवन का परित्याग कर वह एक सुनिश्चित स्थान घर बना कर रहने लगा तो, यौन अराजकता को समाप्त करने, रिश्तों-नातों सहित पारिवारिक जीवन और सामाजिक जीवन मे अनुशासन कायम करने तथा मनुष्य को भावी पीढ़ियों के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिए उसने विवाह जैसी संस्था का आविष्कार किया होगा। आदिम, असभ्य, बर्बर और जंगली मानव से आधुनिक, सभ्य, और सुसंस्कृत  सामाजिक मानव बनने तक के विकास क्रम के इतिहास को खंघालने पर पता चलता है कि-घर, परिवार और विवाह लगभग समसामयिक और समानांतर संकल्पनाए हैं। इसमें परिवार घर और विवाह से पूर्ववर्ती संकल्पना हैं। क्योंकि कबीलाई दौर में मनुष्य परिवार के रूप में जीवन जीने की कला सीख गया था। इस विकास क्रम की दृष्टि घर सबसे उत्तरवर्ती संकल्पना हैं। घर, परिवार और विवाह की उत्पत्ति को लेकर समाजशास्त्री बहस करते रहेंगे परन्तु यह निर्विवाद तथ्य हैं कि- घर और परिवार दोनों एक दूसरे के अनुपूरक हैं। भारतीय समाजशास्त्र में परिवार को समाज की मौलिक ईकाई माना जाता हैं। परिवार का अस्तित्व, चरित्र और निरन्तरता विवाह जैसे संस्कारों पर ही अवलम्बित है। 

हमारी लगभग पाँच हजार साल पुरानी सनातन संस्कृति और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार विवाह को दो हृदयों, दो आत्माओं, दो परिवारों, दो परम्पराओं और संस्कृतियों का मिलन, एकीकरण और एक दूसरे को आत्मसात तथा हृदयंगम करने का पवित्र उत्सव माना जाता रहा हैं। हमारी सनातन संस्कृति और सामाजिक रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं में सोलह प्रकार के वैवाहिक तौर-तरीकों का उल्लेख मिलता है। जिसमें वैदिक रीति-रिवाज के विवाह को सबसे उत्तम माना जाता हैं। जिसमें विवाह से जुड़े सारे कर्मकांडों, संस्कारों और रश्मों-रिवाजों को पूरी पवित्रता, सादगी, साफगोई और शराफत से निभाया जाता रहा हैं। परन्तु बढते बाजारवाद और उफान मारती उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारे तीज-त्यौहार , उत्सव सहित जीवन जीने के तौर-तरीकों शैली और व्याकरण को पूरी तरह बदल दिया हैं। यह बदलाव शादी-व्याह जैसे उत्सवों में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता हैं। आज शादी-व्याह के अवसर पर  लोक कलाकारों द्वारा बजाए जाने परम्परागत वाद्ययंत्रों जैसे शहनाई, ढोल, ढोलक, नगाड़ा और हारमोनियम सहित देशज वाद्ययंत्रों के स्थान पर अश्लीलता की पराकाष्ठा लांघ चुके गीतों पर सुरपसोनिक गति से भी तेज गति से बजते डीजे संस्कृति ने ले लिया है। इन पवित्र पावन उत्सवों पर लोक कला के सहारे अपनी आजीविका चलाने वाले लोक कलाकार भी भरपूर आनंद लेते थे। भारत रत्न मरहूम विस्मिलाह खान की शहनाई की गूंज से अनगिनत सुहागिनो की डोलियाॅ उठा करती थी। परन्तु उसके स्थान पर आज कर्कश, कानफोड़ू तीव्र ध्वनि के साथ शोर मचाते डीजे संस्कृति से न केवल ध्वनि प्रदूषण तेजी से बढ रहा है, बल्कि इसके कारण हृदयाघात से होने वाली मौतें आए दिन अखबार की सुर्खियाॅ बनती हैं। शादी- व्याह के अवसर पर विविध प्रकार के सुमधुर पारंपरिक गीत- संगीत के स्थान पर आर्केस्ट्रा संस्कृति हमारे गाँव-देहात में भी तेजी से पाॅव पसारती जा रही हैं। हमारे समाज में शादी व्याह के अवसर पर गाॅव-घर और रिश्ते-नातों की महिलाओं में भरपूर उत्साह रहता था। वर पक्ष और कन्या पक्ष दोनों तरफ से गांव-घर अथवा रिश्तों से पारम्परिक गीतों की मर्मज्ञ और सिद्धहस्त स्वर कोकिलाओं को बुलाया जाता था तथा  पारम्परिक गीतों की तैयारी महीनों पहले से आरंभ हो जाती थी। दूल्हे राजा संग सहबलिया तथा बारातियों के स्वागत से लेकर दुल्हन की विदाई तक प्रत्येक अवसर के लिए मार्मिक, मनमोहक और कर्णप्रिय गीत महिलाओं द्वारा गाए जाते रहे हैं। विवाह के विविध अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों की संरचना और साज-सज्जा में मर्यादा पुरुषोत्तम राम,उनके अनुजो भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न माता जानकी, अयोध्या और जनक पुर का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता हैं। आज इन लोक परम्परा के बेहतरीन गीतों का स्थान अश्लील फूहड़ गीतों तथा पेट-पर्दा चलाने की गरज से लगभग अर्द्धनग्न परिधानों में लिपटी नृत्यांगनाओ के अश्लील फूहड़ और मादक नृत्यों से सुसज्जित आर्केस्ट्रा संस्कृति ने लिया है। शादी-विवाह के उत्सवो से परस्पर रिश्तों-नातों में जुड़ने की गर्मजोशी, गर्माहट और मिश्री सरीखी मिठास लगभग नदारद होती जा रही हैं और यह नवदौलतिया लोगों में धन दौलत अपनी हैसियत का भौडा प्रदर्शन मात्र बनकर रह गया है। फाइफ स्टार होटलो, सामान्य होटलों और गेस्ट हाउस से होने वाले शादी-विवाह के उत्सवो से लोक परम्परा के गीतों का चलन-कलन लगभग बंद हो चला है। जबकि-घर-ऑगन से होने वाले शादी-विवाह के उत्सवो में लोक परम्परा के गीत-संगीत अवश्य सुनने को मिल जाते परन्तु तेज ध्वनि से बजते कर्कश और कानफोड़ू शोर में पारम्परिक गीतों के स्वर दब जाते हैं। 

तेज ध्वनि से फिल्मी गानों की धुन पर  बजते डीजे और उसके सामने विविध रोशनी में नहाते रैम्प पर वर पक्ष और कन्या पक्ष के लोग जमकर थिरकते हैं। ऑगन में महिलाओं द्वारा गाई जाने वाली प्रचलित गारी सहित सदियों से प्रचलित लोक परम्परा के गीतों के  श्रोताओं की तादाद निरंतर घटती जा रही है। 

गौरव सिंह राठौर ✍️

स्क्रिप्ट राइटर समाचार इंडिया।



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