क्रोध की ज्वाला से तुम अपना, तोड़ देते हो मस्तिष्क की कड़ियाँ।
विश्वास, संयम है बनाता, मनोरोग से सारी दूरियाँ।
अंतर्मन की कड़वाहट से, बहने लगता रक्त का लावा।
गर जिये तपिश को सहकर, मनोविकार रह जायेगा आधा।
मन मस्तिष्क के इस आँगन में, सूना लगेगा मन का उपवन।
खुश रहकर तुम फूल खिलाओ, मन भी हो जाएगा चितवन।
लोभ, मोह और राग, द्वेष से, जितना दूर रहोगे भैया।
जीवन में संतुष्टि का आनंद, भरपूर मिलेगा तुमको भैया।
मन मस्तिष्क के द्वार खोल दो, जीवन में महकेगी खुशियाँ।
कड़वी बातों को भुलाकर, चढ़ो प्रेम की तुम सीढ़ियाँ।
मन की शीतल पवन बयार से, आ जाती हैं दिलों मे शोखियाँ।
उड़ जाते हम उन्मुक्त गगन में, रह जाती हैं मन मस्तिष्क मेंं स्मृतियाँ।
स्वरचित मानसी मित्तल✍️
शिकारपुर, जिला बुलंदशहर
उत्तर प्रदेश।
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