यदि कोई धर्म रुलाने का, कर रहा कर्म, वह धर्म नहीं।
यदि करता कर्म रुलाने का, वह है कुकर्म, सत्कर्म नहीं।
आनंद देख, आनंद मिले, ‘आनंद’ वही कहलाता है।
आनंद देख, कंप गयी रूह, वह घृणित कुकर्म कहाता है।
श्रष्टा से होता, सृष्टि- सृजन, है लक्ष्य मात्र, आनंद एक।
आनंद सदा हो आवंटित, हो हिये सजा, बस भाव नेक।
यह सकल श्रृष्टि गोपी-मय हो, हों राधावल्लभ कृष्ण एक।
सर्वत्र बसा वृन्दावन हो, मुरली-मोहन-स्वर, मधुर टेक।
सच्चिदानंद बन मनमोहन, आनंद-दान-हित, रासलीन ।
गोपी रसमग्न, बनीं मोहन, श्रीकृष्ण गोपिका प्रेम-लीन ।
देखो इस प्रकृति सुंदरी को, कण-कण में प्यार समाया है।
तरु से लिपटी रसमग्न लता, खिल प्यार पुष्प बन छाया है।
ये उदधि-ऊर्मियां, पूनम के, चंदा से मिल, आनंदित हैं।
ये पुष्पावलियां चुम्बित हो, भ्रमरावलियों से, रंजित हैं।
कर कर्म सकल आनंद हेतु, स्वागत करने आनंद खड़ा।
यदि बोया पेड़ बबूल कहीं, कांटों का ले दुःख-द्वंन्द्व, अड़ा।
आनंद सदा बन, मनमोहन, गोपी-रस-सिक्त, सुहाता है।
‘उत्पीड़न’ बन कर कुटिल कंस, मर, कुत्तों से नुचवाता है।
विद्वत जनों को सादर समर्पित एवं अभिनंदन...…
महेन्द्र राय
पूर्व प्रवक्ता अंग्रेजी, आजमगढ़।
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