धर्म का मर्म नहीं समझने वाले ही करते हैं दंगा-फसाद और नफरत परोसते हैं : मनोज कुमार सिंह


धर्म का बाजारीकरण और राजनीतिकरण दोनों स्वस्थ समाज और गतिशील लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। धर्म का बाजारीकरण बढ्ने से धर्म मुनाफ़े वाला चोखा धंधा बन जाता है। धर्म का राजनीतिकरण होने से राजनीति के सारे दुर्गुण (छल, कपट, प्रपंच, सत्ता लोलुपता इत्यादि) धर्म में समाहित होने लगते हैं तथा धर्म के प्रभाव में आकर राजनीति अपना यथार्थवादी, मौलिक और तार्किक चरित्र खो देती है। अंततः धर्मसत्ता और राजसत्ता के घालमेल से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जनता के अधिकार और जनता की स्वतंत्रता पर खतरों के बादल मंडराने लगते है। धर्मसत्ता और राजसत्ता के बेढब और बेमेल घालमेल के कारण ही लगभग सम्पूर्ण यूरोपीय महाद्वीप रोमन साम्राज्य के पतन से लेकर सोलहवीं शताब्दी में हुए पुनर्जागरण के पूर्व तक अंधकार के गहन गर्त में डूबा रहा। पुनर्जागरण और धर्मसुधार आंदोलन के बाद जब धर्मसत्ता और राजसत्ता का स्पष्ट विभाजन हुआ उसके उपरांत यूरोपीय महाद्वीप आधुनिक वैज्ञानिक और तार्किक चेतना के साथ विकास और प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ। अतीत का गहराई से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि-जब-जब धर्मसत्ता और राजसत्ता का आपस में घालमेल हुआ है तो उस समाज में अंधभक्ति और अंधविश्वास का साम्राज्य प्रवर्तित हुआ है, कूपमंडूकता अपनी पराकाष्ठा पर पहुंची  तथा जनता पर अत्याचार और शोषण की मार बढती गई। यूरोप का इतिहास गवाह है धर्मसत्ता और राजसत्ता जैसी दोनों तलवारों ने मिलकर जनता का निर्ममता पूर्वक शोषण किया। यह एक तार्किक और तथ्यात्मक सच्चाई है कि-धर्म का राजनीति करण होने से जनता के बुनियादी मुद्दे और नारे गौण होने लगते हैं। धीरे-धीरे धार्मिक नारे जनता के असली नारे बनते जाते हैं और जनता के बुनियादी मुद्दे हवा-हवाई हो जाते हैं। राजसत्ता की प्राप्ति के लिए धर्म का इस्तेमाल जब-जब होता हैं जनता का सामूहिक विवेक और सामूहिक तर्क क्षीण होने लगता है। तर्क बुद्धि और विवेक से हीन समाज एक उन्मादी भीड़ में बदलने लगता है। इसलिए दूरगामी दृष्टि से राजनीति में धर्म का इस्तेमाल जनता के अधिकारों और स्वतंत्रताओ से परिपूर्ण समाज के लिए हमेशा बाधक होता हैं। 

धर्म एक दिया हैं जिससे अज्ञानता के अंधकार को दूर किया जाता हैं तथा जिससे अविद्या और अंधविश्वास का नाश होता है। इसलिए इसकी दिव्य रोशनी अपने कर्तव्य और कर्म पथ को निरंतर दिव्यालोकित करते रहिए और अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व और चरित्र को दुग्ध धवल ज्योत्स्ना की तरह स्वच्छ, शीतल और सुवासित बनाते रहिए। धर्म की गलत व्याख्या के कारण धर्म एक खतरनाक औजार बन जाता हैं। धर्म जब अनपढ़ों कुपढो और उपद्रवी मानसिकता के लोगों के हाथ में आ जाता है तो हिंसा और साम्प्रदायिक दंगे होने लगते हैं। मानवता को बचाने वाला धर्म मानवता का दुश्मन बन जाता है और मौत का तांडव होने लगता तथा मानवता कराहने लगती हैं। गलत व्याख्या के कारण ही धर्म अज्ञानता तथा अविद्या के अंधकार को दूर करने के वाले दिये के रूप में नहीं बल्कि घर और बस्तियां जलाने वाली माचिस की तिली बन जाता हैं। इसलिए इस देश में रहने वाले समस्त धर्मावलंवियो से निवेदन है कि-शुद्ध अंतः करण से अपनी-अपनी धार्मिक पुस्तकों का बार बार अध्ययन करें। अगर कोई सच्चा धार्मिक व्यक्ति ईमानदारी से अपनी धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करता है तो वह किसी इंसान से कभी नफरत कर ही नहीं सकता हैं। अलग-अलग विद्वानों ने धर्म की अलग-अलग व्याख्या की है और अलग-अलग तरीके परिभाषित किया है। परन्तु सबके अनुसार धर्म मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को नैतिक बनाने का  सबसे कारगर हथियार है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार धर्म  सत्य की खोज करने और विद्यमान सभी पदार्थों में एकता का दर्शन करने का माध्यम है। अधिकांश धर्मप्रवर्तको  के अनुसार धर्म का कार्य परम् सत्य, परम ब्रह्म, परम तत्व और सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान ईश्वर को प्राप्त करना अथवा साक्षात्कार करना है। परम तत्व के साक्षात्कार से ही परमानंद की प्राप्ति होती हैं। 

धर्म का वास्तविक उद्देश्य मनुष्य को उसके जीवन के सत्यासत्य से परिचित कराते हुए उसकी आत्मिक और आध्यात्मिक उन्नति सुनिश्चित करना है। मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति होने पर मनुष्य के अंदर अपने समान मनुष्यों के प्रति समदृष्टि और जीव जंतुओं के प्रति करूणा का भाव उत्पन्न हो जाता हैं। धर्म का वास्तविक उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन में सर्वोत्तम मानवतावादी मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों को स्थापित करना हैं। इन मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों से निरंतर अनुप्राणित और अनुशासित होते हुए मनुष्य अपने अंदर नैतिक और मानवीय गुणों विकास करता है। नैतिक और मानवोचित गुणों का विकास करते हुए मनुष्य एक बेहतर जीवन जीने का प्रयास करता है। साथ ही साथ इन स्थापित मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों की मार्गदर्शना में मनुष्य अपने समस्त दुर्गुणों, दुर्विकारों और चारित्रिक दुर्बलताओं को दूर कर स्वस्थ्य, समरस और सहिष्णु समाज का निर्माण करने का प्रयास करता है। जैसे-जैसे मनुष्य का हृदय उच्च नैतिक मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों को आत्मसात करता जाता हैं वैसे-वैसे उसके हृदय से समस्त प्रकार की संकीर्णताऐं और विकृतियाॅ तिरोहित होने लगती है। फलस्वरूप उसका हृदय व्यापक और विशाल मानवता के प्रति विश्वास से तरंगित और उमंगित होने लगता है। विशाल और व्यापक ह्रदयों के सहयोग, साहचर्य, समन्वय और सहकार से ही विश्वबंधुत्व और विश्वशाॅति का स्वप्न इस बसुन्धरा पर वास्तविकता के धरातल पर अवतरित हो सकता हैं। वस्तुतः धर्म ब्रह्माण्ड की विशालता, विराटता और व्यापकता में ज्ञानमयी गोते लगाते रहने अथवा लीन हो जाने का नाम है।     

सहज, सरल और साधारण अर्थ में ब्रह्माण्ड के प्रत्येक पदार्थ और अवयव  का कोई न कोई धर्म अवश्य होता हैं। जैसे अग्नि का धर्म है उष्णता, पानी का धर्म है शीतलता, वृक्ष का धर्म है नि:स्वार्थ रूप से छाया और मीठे फल प्रदान करना, वायु का धर्म है पर्यावरण में प्रत्येक प्राणी के लिए स्वस्थ और स्वच्छ जीवन हेतु वायुमंडल निर्मित करना और बसुन्धरा का धर्म है प्रत्येक जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के पालन पोषण हेतु आवश्यक वस्तुएँ निरंतर उत्पन्न करते रहना। परन्तु व्यापक अर्थ में धर्म का वास्तविक अर्थ है- व्यक्ति का व्यक्ति से, व्यक्ति का प्रकृति से, व्यक्ति का समाज से सम्बन्धों का सच्चा ज्ञान, बोध और समझ प्राप्त करते रहना, तद्नुकूल अन्य व्यक्ति प्रकृति और समाज साथ श्रेष्ठ और मर्यादित आचरण, व्यवहार, कर्तव्य और दायित्व सुनिश्चित करना। प्रकारांतर से व्यापक अर्थ में धर्म का सम्बंध समस्त प्रकार के सत्य ज्ञान को उद्घाटित करना और सम्पूर्ण मानव समाज को उसका बोध कराना तथा सत्य के ज्ञान और बोध द्वारा मनुष्य को सत्कर्म के लिए निरंतर प्रेरित करते रहना है। 

आदिम युग का मानव अनपढ़, असभ्य और बर्बर था। वह प्राकृतिक घटनाओं के ज्ञान-विज्ञान से पूरी तरह अनभिज्ञ था और इसलिए प्राकृतिक घटनाओं से भयभीत होकर प्राकृतिक शक्तियों की पूजा और उपासना करता था। कालान्तर में धर्म का स्वरूप जैसे-जैसे परिष्कृत और परिमार्जित होता गया वैसे-वैसे यह असभ्य, अनपढ़, अज्ञानी और बर्बर मानव को शिक्षित, दीक्षित, प्रशिक्षित और संस्कारित कर मनुष्य के आत्मिक, नैतिक, मानसिक और साँस्कृतिक उत्थान करने का सर्वाधिक सशक्त माध्यम बन गया। नैतिक मानसिक और सास्कृतिक उत्थान द्वारा ही मनुष्य को नैतिक, सचरित्र और समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनाया जा सकता हैं। मनुष्य के नैतिक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और चारित्रिक उत्थान के लिए प्रायः विश्व के सभी धर्मों ने कुछ सुनिश्चित कर्मकांड और क्रियाकलाप निर्धारित किए हैं। इन धार्मिक क्रियाकलापों और कर्मकांडों का वास्तविक उद्देश्य मनुष्य के दिल, दिमाग, मन, मस्तिष्क और हृदय में समाहित हिंसा, घृणा, क्रूरता और क्रोध सहित समस्त पाशविक प्रवृत्तियों को पूरी तरह निर्मूल कर दया करूणा परोपकार सदाशयता, सहानुभूति और मनुष्यता की भावना को जाग्रत करना है। इसलिए जब-जब इस बसुन्धरा पर मानवता गहरे संकट में फंसी, सम्पूर्ण समाज अराजकता का शिकार हुआ, सामाजिक सम्बन्धों में खटास आई, बैर-भाव वैमनस्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा, सहकार, समन्वय, साहचर्य, सहिष्णुता पर खतरा मंडराया, सामाजिक अनुशासन भंग हुआ, लोक-जीवन के आचरण-व्यवहारों और आदतों में अशिष्टता और अनुशासन हीनता बढने लगी तथा व्यक्ति के साथ-साथ सृष्टि पर भी विनाश के बादल उमड़ने-घुमडने लगे तो किसी न किसी रूप में कोई न कोई  धर्म, विचार, दर्शन, सिद्धांत, और संकल्पना इस बसुन्धरा पर अवश्य अवतरित हूई। वस्तुतः अपने मौलिक स्वरूप में दुनिया के सभी धर्मों का आविर्भाव मानव, मानवता, स्वस्थ्य  मानवीय संबंधों को बचाने और समाज  को बेहतर बनाने के लिये हुआ। जब-जब सामाज में हताशा और निराशा अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है तो सामाजिक जन-जीवन में सृजनात्मक, रचनात्मक और सकारात्मक उर्जा संचारित करने के कार्य धर्म ही करता है। मौलिक रूप से  नैतिकता से परिपूर्ण और मानवतावादी लगभग समस्त धार्मिक सम्प्रदायों में कुछ लोभी, लालची, कपटी और धूर्त लोगों ने धर्म को अपनी रोजी-रोटी का धंधा, निजी स्वार्थों की प्रतिपूर्ति का माध्यम और अपनी संकीर्ण सांसारिक महामहत्वा कांक्षाओं को साधने का साधन बना लिया। अपने निजी स्वार्थों की प्रतिपूर्ति में धर्म के कुछ ठेकेदारों ने धर्म के वास्तविक निहितार्थ और स्वरूप को पूरी तरह विकृत कर दिया और धर्म को रातों-रात मालामाल होने वाला व्यवसाय बना दिया। विगत वर्षों में जेल की सलाखों में बंद तथाकथित बाबाओं की दौलत का विशाल साम्राज्य देखकर देश की जनता हतप्रभ हो गई। इस प्रकार के तथाकथित बाबाओं ने धार्मिक कर्मकांडो को अपराधियों के अपराध और भ्रष्टाचारियों के भ्रष्टाचार को धोने का औजार बना दिया। भोली-भाली जनता की भावनाओं का विदोहन कर और उनकी आस्थाओं और विश्वासों के साथ छल कपट करके तथाकथित बाबाओं बेशुमार दौलत बनाई। 

कोरोना वायरस के कारण उत्पन्न वैश्विक महामारी ने सम्पूर्ण मानव समाज के अंत:करण को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया है। रातों-रात बेशुमार दौलत कमाने की चाहत लिए, आधुनिकीकरण, नगरीकरण और औद्योगीकरण की अंधी दौड़ में हाँफते-दौडते मनुष्य को फिर से प्राचीन और नैसर्गिक जीवन शैली अपनाने के लिए विवश कर दिया। साथ ही साथ लगभग दुनिया को अपनी आगोश में ले चुके इस संकट ने दुनिया के चितंको और विचारकों को विकास को नये सिरे से परिभाषित करने के लिए विवश कर दिया। इसी तरह इस गम्भीर वैश्विक संकट ने समस्त मानव समुदाय को धर्म के मौलिक स्वरूप और उसके वास्तविक निहितार्थ पर फिर चिंतन मनन करने के लिए विवश कर दिया है। मनुष्य जब भीतर से महान होता हैं, अंत:करण से पवित्र होता हैं और उसकी अंत:प्रज्ञा उचित-अनुचित के प्रति सजग सचेत और जाग्रत रहती हैं तभी समाज में वास्तव में सुख, शांति, समृद्धि, समरसता और सहिष्णुता आती हैं। हमने तिलक चन्दन रोली भभूत भस्म, लगाना लपेटना, जटा बढ़ाना, मंदिरों में स्थापित  मूर्तियों का दर्शन और पूजा करने को ही धर्म का वास्तविक स्वरूप मान लिया है। परन्तु धर्म का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व कृतित्व और चरित्र में  सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वोत्कृष्ट और आदर्श मानवोचित गुणों का विकास। इन मानवोचित गुणों के विकास द्वारा ही लोक-जीवन में लोकमंगल लाया जा सकता हैं। 

कहीं-कहीं और कुछ लोगों में कोरोना वायरस के कारण उपजी महामारी के दौर में धर्म के वास्तविक और  मानवतावादी स्वरूप का दर्शन हुआ। हर हृदय में दया, करूणा, सहयोग सहकर का भाव-विचार भी देखने को मिला। आज मनुष्य के बहुमूल्य जीवन मनुष्यता की रक्षा करना समग्र मानव समाज के लिए बडी चुनौती है। इस चुनौती का उत्तर सभी धर्मों में निहित मानवतावादी मूल्यों के आत्मसाती-करण और जागरण से ही सम्भव है।

धर्म और धार्मिक ग्रन्थों का प्रणयन मनुष्य और समाज को नैतिक बनाने के लिए किया गया। क्योकिं नैतिकता विहिन विकास मनुष्य के अंदर अंहकार लोभ लालच और हवस पैदा करता है। आज दुनिया के विकसित देश अपनी सामरिक शक्ति) तकनीकी और वैज्ञानिक क्षमता का इस्तेमाल पूरी दुनिया को हड़पने के लिए कर रहे हैं। विशुद्ध आर्थिक विकास के दुष्प्रभाव साफ-साफ देखें जा सकते हैं। आज दुनिया के हर चट्टी-चौराहे, छोटे-बड़े, देहाती-शहरी लगभग बाजार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल में फस चुके हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढते प्रभाव और प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा पर आधारित बढते बाजारीकरण ने समाज से नैतिक मूल्यों को पूरी हाशिए पर धकेल दिया हैं।  


मनोज कुमार सिंह "प्रवक्ता"

बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ।




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