*अनसुलझी सी जिंदगी*


जब बैठे बैठे कुछ करने को नहीं सुझता है तब; बस यूँ  ही कुछ दूर कविताओं के संग सफर तय कर लेते है.....


खुद में खोई खोई हूँ जाने किस सवाल में 

खुद को ढूंढा करती हूँ जाने किस जवाब में 

पहेली नहीं हूँ फिर भी अनसुलझी हूँ 

सीसा (कांच) नहीं हूँ फिर भी बिखरी हुई हूँ 


जाने किस गुत्थी में उलझी हुई हूँ 

खुद के लिए अब  खुद से वक्त मांगती हूँ 

जाने किस जख्म के दर्द से लिपटी पड़ी हूँ 

जाने किस डर से,

खुद को खुद में सिमेटे पड़ी हूँ 

जाने किस आह से नम आँखे लिए खड़ी हूँ 


बर्फ नही हूँ फिर जाने क्यूं जम- सी गई हूँ 

पत्थर नही हूँ फिर जाने क्यूँ थम सी गई हूँ 

नदी नहीं हूँ फिर क्यूं बह सी रही हूँ 

समंदर नहीं हूँ फिर क्यूँ गहरी होती जा रही हूँ 


इस क्रूर जंगल में जाने क्या खोजने निकल पड़ी हूँ 

रिश्तो के धोखे में जाने क्या छान रही हूँ

सूखे पेड़ो पे हरियाली ढूंढ़ रही हूँ 

सावन में पतझड़ को देख रही हू

बारिस मे मुरझाये खेतो को देख रही हूँ


पता है रास्ता पर फिर भी गुम सी हूं ,

चारो तरफ है सावन पर फिर भी नम सी हूं ,

है हरतरफ उजाला पर मैं तम सी हूं ,

उकेरते है लोग मेरे हर गम पर मै चुप सी हूं......


रंजना यादव, बलिया। 

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