बरसो मेघा प्यारे


आओ रे ..बरसो मेघा प्यारे,

घुमड़ घुमड़ कर बदरा कारे।


धरा तपिश से हो रही व्याकुल,
वन उपवन वर्षा को आतुर।
ठंडी ठंडी वर्षा की बूंदों से,
भूमि को तुम शीतल कर दो।
आओ रे ....

तुम बिन खेत खलियान हैं सूखे,
क्यों तुम हो कृषक से रूठे??
ढूंढ रही हैं प्यासी अखियाँ,
इन अखियों की प्यास बुझा दो।
आओ रे .....

चातक, पक्षी, मोर, पपीहा,
सब गर्मी से झुलस रहे हैं।
सूखे नदी, तड़ाग, सरोवर,
अपनी वर्षा से पावन कर दो।
आओ रे ....

कोयल काली कुहूक रही हैं,
अमुआ की डाली सुख रही हैं।
जीव, जंतु इस भीषण गर्मी में,
अपने रहम की वर्षा कर दो।
आओ रे .....


नटखट हो तुम कारे बदरा,
लगाके आते नयनों में कजरा।
अब तो प्यारे मेघा बरसो,
अपनी वसु की झोली भर दो।
आओ रे मेघा....



स्वरचित ✍️
मानसी मित्तल
शिकारपुर, जिला बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश 
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