मै गुठली हूँ पर मै भी जीता जागता जिन्दा जीव हूँ,
आम,आंवला, इमली या जामुन की हो
या बेशकीमती छुहारा की हो,
चूस कर, चबाकर और खा-पचाकर
फेंक दी जाती हूँ,
वह भी बेमुरूव्वत बेगैरत बडी हिकारत से,
हर कोई बडी बेवफाई से,
बडे तिरस्कृत भाव से,
आने-कोने-अतडे या
फिर कूडेदान में,
या कोई गन्दी जगह देखकर,
या रूखे सूखे ऊसर बंजर
या किसी बेजान मरूस्थल पर
फेंक देता बेलज्जज़त ।
फिर मैं धूल धूसरित सडकों
पगडंडियों पर बेरहमी से
कुचली जाती हूँ और लतियाई जाती हूँ
बेकार व्यर्थ समझकर
हर कोई फेंक देता है
अनावश्यक चीज समझकर,
फिर भी सारा अपमान सहते हुए
फितरत है मेरी फिर से उठना
उगना, जमना,
और नयी नस्लों के लिए मिट जाना
स्वयं को दफ़न कर,
फिर से स्वाद से लबरेज़
ताजे मौसमी फलों को तैयार करना,
जिनसे सजते रहते है दस्तरख़ान,
और गुलजार रहती हैं महफिले।
पर पता नहीं क्यों नहीं समझते
भौरे की तरह फलों का रस चूसने वाले
मै गुठली हूँ पर मै भी सजीव हूँ।
वैसे तो हिन्दी के मुहावरो में
हिन्दी की हर कक्षाओं में,
बडे चाव से समझाया जाता हैं,
"आम के आम गुठलियों के दाम",
तरह-तरह का स्वाद चखने वाले
तनिक भी नहीं जानते
मेरी कीमत अहमियत और हैसियत,
मेरी अहमियत, मेरी कीमत,
नींव के पत्थर और मील के पत्थर
जरूर जानते और पहचानते हैं मुझे,
और मेरी चुटकी भर ही सही हैसियत,
बोने उगाने वाले जानते हैं,
धरती पर पसीना बहाने वाले जानते हैं
वही जानते हैं कि-
मैं गुठली हूँ और जीता जागता जिन्दा जीव हूँ ।
तभी तो प्यार से
धरती के किसी हिस्से में
बडे प्यार से सम्मान देते हैं,
मेरी जडे जमाते हैं
और बदले में ज़िन्दादिली से
मै भी एक से अनेक
और फिर अनगिनत हो जाती हूँ,
बिखराव और फैलाव मेरा चरित्र हैं,
अनंतः हर जीव की जीभ की
तृप्ति का अंकुर हमी से फूॅटता है,
मेरे वजूद की कीमत पर ही,
पेड़ पोधे फलते फूलते हैं,
फिर भी फेंक दी जाती हूँ,
रद्दी कागज या कबाड़ की तरह,
न जाने कब महसूस करेंगे
तंदरुस्त मिजाजी स्वादो के शौकीन,
मैं गुठली हूँ पर मै भी सजीव हूँ।
इन गुठलियों को लापरवाही से
आम रास्तों पर फेंकते फेंकते
और विवशताओं के लोकतंत्र को
अपने संवैधानिक कंधों पर ढोते-ढोते
कहीं हम भी तो नहीं हो गये हैं
व्यर्थ बेकार गुठलियों की तरह,
क्योंकि हर पांच साला चुनावी मौसम में
हम नजर आते सियासी सूरमाओं को
मीठे स्वादिष्ट फल पकवान की तरह,
इसीलिए चुनाव बाद हर दिन हर पल हो जाते हैं लोकतंत्र के विधाता भी
समझे जाते व्यर्थ बेकार गुठलियों की तरह।
इसलिए लोकतंत्र के भाग्य विधाताओं
तुम्हे जरूर जानना समझना और मानना होगा
मै गुठली हूँ पर मै भी जीता जागता जिन्दा जीव हूँ।
मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता
बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ।
0 Comments