सर्वोच्च मानवतावादी मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों को हर हृदय में स्थापित करना ही धर्म का वास्तविक उद्देश्य : मनोज कुमार सिंह


धर्म का वास्तविक उद्देश्य सामाजिक जीवन में सर्वोच्च, सर्वोत्तम और सर्वोत्कृष्ट मानवतावादी मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों को स्थापित करना हैं। इन मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों से निरंतर अनुप्राणित, अनुरंजित और अनुशासित होते हुए मनुष्य अपने श्रेष्ठ नैतिक और चारित्रिक गुणों का विकास करता है और विकास करते हुए नैतिक, सचरित्र, प्रसन्नचित्त और आत्मबल तथा आत्मविश्वास से परिपूर्ण जीवन जीने का प्रयास करता है। साथ ही साथ इन स्थापित मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों की मार्गदर्शना में मनुष्य अपने समस्त दुर्गुणों, दुर्विकारों और चारित्रिक दुर्बलताओं को दूर कर स्वस्थ्य, समरस और सहिष्णु समाज का निर्माण करने का प्रयास करता है। जैसे-जैसे मनुष्य का हृदय उच्च नैतिक मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों को आत्मसात करता जाता हैं वैसे-वैसे उसके हृदय से समस्त प्रकार की संकीर्णताऐं और विकृतियाॅ तिरोहित होने लगती है। फलस्वरूप उसका हृदय व्यापक और विशाल मानवता के प्रति विश्वास से तरंगित और उमंगित होने लगता है। विशाल और व्यापक ह्रदयों के सहयोग, साहचर्य, समन्वय और सहकार से ही विश्वबंधुत्व और विश्वशाॅति का स्वप्न इस बसुन्धरा पर वास्तविकता के धरातल पर अवतरित हो सकता हैं।    

सहज, सरल और साधारण अर्थ में ब्रह्माण्ड के प्रत्येक पदार्थ और अवयव  का कोई न कोई धर्म अवश्य होता हैं। जैसे अग्नि का धर्म है उष्णता, पानी का धर्म है शीतलता, वृक्ष का धर्म है नि:स्वार्थ रूप से छाया और मीठे फल प्रदान करना, वायु का धर्म है पर्यावरण में प्रत्येक प्राणी के लिए स्वस्थ और स्वच्छ जीवन हेतु वायुमंडल निर्मित करना और बसुन्धरा का धर्म है प्रत्येक जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के पालन पोषण हेतु आवश्यक वस्तुएँ निरंतर उत्पन्न करते रहना। परन्तु व्यापक अर्थ में धर्म का वास्तविक अर्थ है- व्यक्ति का व्यक्ति से, व्यक्ति का प्रकृति से, व्यक्ति का समाज से तथा व्यक्ति का सृष्टि के साथ संबंधों का सच्चा ज्ञान, बोध और समझ प्राप्त करते रहना, तद्नुकूल प्रकृति, समाज और सृष्टि के साथ सर्वोत्तम और सर्वोत्कृष्ट आचरण, व्यवहार, कर्तव्य और दायित्व सुनिश्चित करना। प्रकारांतर से व्यापक अर्थ में धर्म का सम्बंध समस्त प्रकार के सत्य ज्ञान को उद्घाटित करना और सम्पूर्ण मानव समाज को उसका बोध कराना तथा सत्य के ज्ञान और बोध द्वारा मनुष्य को सत्कर्म के लिए निरंतर प्रेरित करना। 

प्राचीन काल से भारत सहित समस्त पाश्चात्य और अन्य वैश्विक आध्यात्मिक, धार्मिक और दार्शनिक चिंतन परम्पराओं और गवेषणाओं का केंद्रीय विषय-वस्तु मनुष्य, मनुष्य का आचरण व्यवहार और मनुष्य की गतिविधियां रही है। प्राचीन यूनानी दार्शनिक परम्परा के सुप्रसिद्ध सोफिस्ट दार्शनिक प्रोटेगोरस ने कहा था कि-" मनुष्य समस्त वस्तुओं का मापदंड हैं "(man is the measurement of all things)। यही विचार तुलसीदास रचित रामचरित मानस की पंक्तियों में भी उद्धरित हैं :-"सकल पदारथ मोहिं उपजाएं, सबसे अधिक मनुज मोहिं भाए"। 

आदिम युग का मानव अनपढ़, असभ्य और बर्बर था। वह प्राकृतिक घटनाओं के ज्ञान-विज्ञान से पूरी तरह अनभिज्ञ था और इसलिए प्राकृतिक घटनाओं से भयभीत होकर प्राकृतिक शक्तियों की पूजा और उपासना करता था। कालान्तर में धर्म का स्वरूप जैसे-जैसे परिष्कृत और परिमार्जित होता गया वैसे-वैसे यह असभ्य, अनपढ़, अज्ञानी और बर्बर मानव को शिक्षित, दीक्षित, प्रशिक्षित और संस्कारित कर मनुष्य के आत्मिक, नैतिक, मानसिक और साँस्कृतिक उत्थान करने का सर्वाधिक सशक्त माध्यम बन गया। नैतिक मानसिक और सास्कृतिक उत्थान द्वारा ही मनुष्य को नैतिक, सचरित्र और समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनाया जा सकता हैं। मनुष्य के नैतिक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और चारित्रिक उत्थान के लिए प्रायः विश्व के सभी धर्मों ने कुछ सुनिश्चित कर्मकांड और क्रियाकलाप निर्धारित किए हैं। इन धार्मिक क्रियाकलापों और कर्मकांडों का वास्तविक उद्देश्य मनुष्य के दिल, दिमाग, मन, मस्तिष्क और हृदय में समाहित हिंसा, घृणा, क्रूरता और क्रोध सहित समस्त पाशविक प्रवृत्तियों को पूरी तरह निर्मूल कर दया करूणा परोपकार सदाशयता, सहानुभूति और मनुष्यता की भावना को जाग्रत करना है। इसलिए जब-जब इस बसुन्धरा पर मानवता गहरे संकट में फंसी, सम्पूर्ण समाज अराजकता का शिकार हुआ, सामाजिक सम्बन्धों में खटास आई, बैर-भाव वैमनस्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा, सहकार, समन्वय, साहचर्य, सहिष्णुता पर खतरा मंडराया, सामाजिक अनुशासन भंग हुआ, लोक-जीवन के आचरण- व्यवहारो और आदतों में अशिष्टता और अनुशासन हीनता बढने लगी तथा व्यक्ति के साथ-साथ सृष्टि पर भी विनाश के बादल उमड़ने-घुमडने लगे तो किसी न किसी रूप में कोई न कोई  धर्म, विचार, दर्शन, सिद्धांत, और संकल्पना इस बसुन्धरा पर अवश्य अवतरित हूई। वस्तुतः अपने मौलिक स्वरूप में दुनिया के सभी धर्मों का आविर्भाव मानव, मानवता, स्वस्थ्य  मानवीय संबंधों को बचाने और समाज  को बेहतर बनाने के लिये हुआ। जब-जब सामाज में हताशा और निराशा अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है तो सामाजिक जन-जीवन में सृजनात्मक, रचनात्मक और सकारात्मक उर्जा संचारित करने के कार्य धर्म ही करता है। मौलिक रूप से  नैतिकता से परिपूर्ण और मानवतावादी लगभग समस्त धार्मिक सम्प्रदायों में कुछ लोभी, लालची, कपटी और धूर्त लोगों ने धर्म को अपनी रोजी-रोटी का धंधा, निजी स्वार्थों की प्रतिपूर्ति का माध्यम और अपनी संकीर्ण सांसारिक महामहत्वा कांक्षाओं को साधने का साधन बना लिया। अपने निजी स्वार्थों की प्रतिपूर्ति में धर्म के कुछ ठेकेदारों ने धर्म के वास्तविक निहितार्थ और स्वरूप को पूरी तरह विकृत कर दिया और धर्म को रातों-रात मालामाल होने वाला व्यवसाय बना दिया। विगत  वर्षों में जेल की सलाखों में बंद तथाकथित बाबाओं की दौलत का विशाल साम्राज्य देखकर देश की जनता हतप्रभ हो गई। इस प्रकार के तथाकथित बाबाओं ने धार्मिक कर्मकांडो को अपराधियों के अपराध और भ्रष्टाचारियों के भ्रष्टाचार को धोने का औजार बना दिया। भोली-भाली जनता की भावनाओं का विदोहन कर और उनकी आस्थाओं और विश्वासों के साथ छल कपट करके तथाकथित बाबाओं बेशुमार दौलत बनाई। 

कोरोना वायरस के कारण उत्पन्न वैश्विक महामारी ने सम्पूर्ण मानव समाज के अंत:करण को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया है। रातों-रात बेशुमार दौलत कमाने की चाहत लिए, आधुनिकीकरण, नगरीकरण और औद्योगीकरण की अंधी दौड़ में हाँफते-दौडते मनुष्य को फिर से प्राचीन और नैसर्गिक जीवन शैली अपनाने के लिए विवश कर दिया। साथ ही साथ लगभग दुनिया को अपनी आगोश में ले चुके इस संकट ने दुनिया के चितंको और विचारकों को विकास को नये सिरे से परिभाषित करने के लिए विवश कर दिया। इसी तरह इस गम्भीर वैश्विक संकट ने समस्त मानव समुदाय को धर्म के मौलिक स्वरूप और उसके वास्तविक निहितार्थ पर फिर चिंतन मनन करने के लिए विवश कर दिया है। मनुष्य जब भीतर से महान होता हैं, अंत:करण से पवित्र होता हैं और उसकी अंत: प्रज्ञा उचित-अनुचित के प्रति सजग सचेत और जाग्रत रहती हैं तभी समाज में वास्तव में सुख, शांति, समृद्धि, समरसता और सहिष्णुता आती हैं। हमने तिलक चन्दन रोली भभूत भस्म, लगाना लपेटना, जटा बढ़ाना, मंदिरों में स्थापित मूर्तियों का दर्शन और पूजा करने को ही धर्म का वास्तविक स्वरूप मान लिया है। परन्तु धर्म का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व कृतित्व और चरित्र में  सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वोत्कृष्ट और आदर्श मानवोचित गुणों का विकास। इन मानवोचित गुणों के विकास द्वारा ही लोक-जीवन में लोकमंगल लाया जा सकता हैं। 

कहीं कहीं और कुछ लोगों में कोरोना वायरस के कारण उपजी महामारी के दौर में धर्म के वास्तविक और  मानवतावादी स्वरूप का दर्शन हुआ।  हर हृदय में दया, करूणा, सहयोग सहकर का भाव -विचार भी देखने को मिला। आज मनुष्य के बहुमूल्य जीवन मनुष्यता की रक्षा करना समग्र मानव समाज के लिए बडी चुनौती है। इस चुनौती का उत्तर सभी धर्मों में निहित मानवतावादी मूल्यों के आत्मसाती-करण और जागरण से ही सम्भव है।

कोरोना संकट के दौर में जीवन, समाज और विकास के साथ-साथ  धर्म के प्रति उपजे इस अनुभव, सहज बोध, सूझ-बूझ और समझदारी को आगे बढाते हुए धर्म के वास्तविक स्वरूप और निहितार्थ को आत्मसात करते हुए धर्म को सम्पूर्ण मानवता की रक्षा का सशक्त माध्यम बनाया जाना चाहिए। 

मनोज कुमार सिंह "प्रवक्ता "

बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ।

उप सम्पादक-- कर्मश्री मासिक पत्रिका।

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