22 मई को जैव विविधता दिवस पर विशेष :-
बलिया। मानव जैसे-जैसे विकास करता गया, जैव विविधता पर उसकी निर्भरता बढ़ती गयी, कारण कि मानव अपनी भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन की पूर्ति हेतु विकास का जो रास्ता चुना उसके चलते जैव विविधता निरन्तर समाप्त होती जा रही है। इस जैव विविधता के संरक्षण हेतु प्रतिवर्ष 22 मई को जैव विविधता संरक्षण दिवस मनाया जाता है। इस महत्वपूर्ण दिवस पर प्रसिद्ध पर्यावरण स्वयंसेवक, ब्लाँगर एवं श्री गणेशा सोशल वेलफेयर के न्यासी अभिनव पाठक ने एक भेंटवार्ता में जैवविविधता से जुड़े विविध पक्षों पर प्रकाश डाला जो इस प्रकार है-
पौधों, जानवरों और अन्य जीवों में पायी जाने वाली अलग-अलग तरह की विशेषताएं जैव विविधता कहलाती है।
पृथ्वी पर जीवन के लिए उत्तरदायी, सबसे छोटे बैक्टीरिया से लेकर सबसे बड़े पौधों, जानवरों और इंसानों तक की प्रजातियों से ही जैव विविधता बनती है।
जैव विविधता मुख्यता तीन तरह की होती है -
-आनुवंशिक
-प्रजातीय
-पारिस्थितिकीय
बॉटनिकल सर्वे ऑफ इंडिया और जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा अब तक देश में 46,000 से अधिक पौधों और 81,000 प्रजातियों के जानवरों को दर्ज किया गया है।
भारत को दो जैव परिक्षेत्रों में बांटा गया है जिसके अंतर्गत 5 जैवक्षेत्र, 10 जैवभोगौलिक क्षेत्र और 25 जैवभोगौलिक प्रांत आते हैं।
भारत मे दुनिया के कुल भूभाग के 2.50% भूमि पर समस्त स्तनपायी जीवों में से 7.50%, पक्षियों में से 12.50%, सरीसृपों में से 6%, उभयचर 4.50%, मछलियां 12% और फूलदार पौधे 6% पाए जाते हैं।
पक्षियों की वैश्विक रैंकिंग में भारत का 10वां स्थान है जिसमें 69 प्रजातियां हैं, रेपटाइलों में पांचवां हैं और 156 प्रजातियां हैं, एम्फीबियनों में सातवां और उनकी 110 प्रजातियां हैं।
भारत में जैव विविधता के मुख्य रूप से चार हॉटस्पॉट क्षेत्र है-
हिमालायई क्षेत्र- इसमें भूटान, नेपाल, नॉर्थ और साउथ इंडिया क्षेत्र आते हैं।
पश्चिमी व पूर्वी घाट- पश्चिमी घाट महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल और श्रीलंका तक फैला है। इसमें अगस्थेमलाई पहाड़ियां, शांत घाटी, पेरियार राष्ट्रीय उद्यान आदि आते हैं। जबकि पूर्वी हिमालय, उत्तर पूर्व भारत से भूटान तक फैला है।
इंडो-बर्मा रीजन- इसमें पूर्वी बांग्लादेश से मलेशिया तक का हिस्सा आता है। इसमें भारत का छोटा सा ही भाग सम्मिलित है।
सुंदर वन क्षेत्र- इसके अंतर्गत समस्त आईलैंड्स आते हैं। इसमें थाईलैंड, सिंगापुर, इंडोनेशिया, मलेशिया तथा भारत के अंडमान निकोबार आइलैंड आते हैं।
पूर्वांचल क्षेत्र की जैव विविधता बलिया के संदर्भ में :-
पूरे पूर्वांचल सहित बलिया जनपद की जैव विविधता बेहद असंतुलित है। मिर्जापुर, सोनभद्र एवं चंदौली जनपदों को छोड़कर पूर्वांचल के शेष 13 जनपदों मे जैव विविधता का घोर अभाव है। कारण कि इन जनपदों में प्राकृतिक वनस्पति नहीं के बराबर है और जो रोपित पेड़-पौधे हैं वो इस क्षेत्र के कुल क्षेत्रफल के दो प्रतिशत से भी कम है, जबकि, पर्यावरण,पारिस्थितिकी एवं जैवविविधता को संतुलित रखने हेतु तैंतीस प्रतिशत भूभाग पर वनों का होना आवश्यक है। यद्यपि कि
आज से 100-150 वर्ष पूर्व तक पूर्वांचल क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में जंगल और बाग बगीचे स्थित थे, जिसके कारण यंहा पर अनेक प्रकार के जीव जंतु, वनस्पति आदि पाये जाते थे और जैवविविधता कुछ हद तक खतरनाक स्थिति में नहीं पहुँची थी, किंतु धीरे-धीरे प्राकृतिक वनों सहित बाग-बगीचों का भी सफाया हो गया। शुक्र है बलिया जनपद का कि यहाँ ताल-तलैया एवं नदी नाले अधिक हैं, जिससे जलीय जीव जंतु सहिण जलीय पौधे एवं घास यहाँ की जैव विविधता को कुछ बरकरार रखे हुए हैं। जंगलों में पायी जाने वाली जैव विविधता तो नहीं के बराबर हैं। फिर भी बलिया में जो भी जैव विविधता पायी जाती है, उनमें जीव-जन्तुओ में खरगोश, नील गाय, शाही, हिरण, सियार, सांप, बिच्छू, गिरगिट, नेवला, बिल्गोह, गिलहरी, गंगा तिरी गाय आदि मुख्य हैं। इनका भी धीरे-धीरे विनाश होता जा रहा है।
पंक्षियों की प्रजाति में गोरैया, कबूतर, कौआ, पंडुक, फुरगुदी, चोंचा, मैना, कबूतर, बुलबुल, बगुला, हंस, कोयल, नीलकंठ, कठफोड़वा आदि मुख्य हैं। ये भी अब कम मात्रा में पायी जा रही हैं।
वनस्पतियों के अंतर्गत महुआ, आम, जामुन, इमली, बबूल, अमरूद, बरगद, पीपल, आंवला, पाकड़, शीशम, नीम, गूलर, बेल, इत्यादि रोपित वृक्ष पाए जाते थे। साथ ही साथ कुछ घासें एवं लताएँ भी पायी जाती हैं, जिन पर पक्षियों एवं छोटे जीव जंतुओं का वास होता है। ये भी धीरे- धीरे काट दिए गए।
बढ़ती हुई जनसंख्या और अनियोजित विकास के कारण जंगलो और बगीचों का सफाया कर के उनके स्थान पर खेत एवं आवास, सड़क आदि का निर्माण हुआ। इन जीव जन्तुओ एवम वनस्पतियो के प्राकृतिक आवास, पारिस्थितिकी का विनाश होने के कारण इनकी संख्या धीरे-धीरे कम होने लगी एवं कई सारी प्रजातियां आज विलुप्ति के कगार तक पहुंच गई हैं।
बलिया जिले में वन क्षेत्र 2% से भी कम रह गया है जो कि अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार सम्पूर्ण क्षेत्रफल का कम से कम 33% होना चाहिए।
गंगा नदी में पाई जाने वाली मीठे पानी की डॉल्फिन जिसका नाम गांगेय डॉल्फिन है तथा आम बोलचाल की भाषा मे जिसे सोंस कहा जाता है, इस जीव का अस्तित्व भी गंगा पर बने बांधो एवम नदी में बढ़ते प्रदूषण के कारण सकंट में आ गया था। पिछले कुछ वर्षी में सरकारी प्रयासों के कारण इनकी संख्या में कुछ वृद्धि तो हुई है परंतु अभी भी ये संकट ग्रस्त प्रजाति है।
खेतो में प्रयुक्त होने वाले रसायन, कीटनाशक, घरो में प्रयुक्त होने वाले विलायक छोटे पर्यावरण मित्र जीवो जैसे केंचुए आदि के लिए काफी खतरनाक साबित होते है। जंगल के खत्म होने से वन्य जीवों को उनका प्राकृतिक आवास एवं भोजन उपलब्ध नही होता जिससे कि उनकी संख्या धीरे - धीरे कम होती जाती है।
जैव विविधता खत्म होने के मुख्य कारण -
*आवासीय क्षति
*अवैध शिकार
*मनुष्य एवं वन्य जीवन संघर्ष
*सड़क व रेलमार्गों के लिए *वनस्पति व प्राणियों को उजाड़ा जाना।
*कृषि भूमि का आवासीय क्षेत्रों में परिवर्तन।
*उद्योगों के लिए वनों व चारागाहों का उन्मूलन।
*वन्य प्राणियों को भोजन, सजावट की वस्तुओं व मूल्य की अधिकता के कारण मारना।
जैव विविधता का संरक्षण :-
संरक्षण प्राकृतिक संसाधनों का योजनाबद्ध प्रबंधन है ताकि प्राकृतिक संतुलन एवं जैव विविधता को बनाये रखा जा सके। इसमें प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग भी शामिल है जिसके अन्तर्गत संसाधनों का उपयोग इस प्रकार किया जाए कि वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके तथा भविष्य की पीढ़ियों के लिये भी पर्याप्त हो।
विश्व संरक्षण रणनीति ने जैव-विविधता संरक्षण के लिये निम्नलिखित सुझाव दिये हैं :-
1. उन प्रजातियों के संरक्षण का प्रयास होना चाहिए जो कि संकटग्रस्त हैं।
2. विलुप्ति पर रोक के लिये उचित योजना तथा प्रबंधन की आवश्यकता।
3. खाद्य फसलों, चारा पौधों, मवेशियों, जानवरों तथा उनके जंगली रिश्तेदारों को संरक्षित किया जाना चाहिए।
4. प्रत्येक देश की वन्य प्रजातियों के आवास को चिंहित कर उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करना चाहिए।
5. उन आवासों को सुरक्षा प्रदान करना चाहिए जहाँ प्रजातियाँ भोजन, प्रजनन तथा बच्चों का पालन-पोषण करती हैं।
6. जंगली पौधों तथा जन्तुओं के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार पर नियंत्रण होना चाहिए।
पूर्वांचल तथा बलिया के संदर्भ में जैव संरक्षण की कार्ययोजना निम्नलिखित दिशा में होनी चाहिए :-
1. बलिया के विभिन्न क्षेत्रों में पाये जाने वाले जैविक संसाधनों को सूचीबद्ध करना।
2. सामुदायिक संस्थाओ, एन जी ओ , प्रशासन आदि के माध्यम से जैव-विविधता के संरक्षण का प्रयास तथा आम जनता को इसके बारे में जागरूक करना।
3. क्षरित आवास का प्राकृतिक अवस्था में पुनरुत्थान।
4. प्रजाति को किसी दूसरी जगह उगाकर उसे मानव दबाव से बचाना।
5. क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित करके वँहा रहने वाली जनजातियों को इस कार्यक्रम से जोड़ना ।
6. जैव-प्रौद्योगिकी तथा ऊतक संवर्धन की आधुनिक तकनीकों से लुप्तप्राय प्रजातियों का गुणन।
7. देसी आनुवंशिक विविधता संरक्षण हेतु घरेलू पौधों तथा जन्तुओं की प्रजातियों की सुरक्षा।
8. जोखिमग्रस्त प्रजातियों का पुनरुत्थान।
9. बिना विस्तृत जाँच के विदेशी मूल के पौधों के प्रवेश पर रोक।
10. एक ही प्रकार की प्रजाति का विस्तृत क्षेत्र पर रोपण को हतोत्साहन।
11. उचित कानून के जरिये प्रजातियों के अतिशोषण पर लगाम।
12. प्रजाति व्यापार संविदा के अंतर्गत अतिशोषण पर नियन्त्रण।
13. आनुवंशिक संसाधनोंए के संपोषित उपयोग तथा उचित कानून के द्वारा सुरक्षा।
14. संरक्षण में सहायक पारंपरिक ज्ञान तथा कौशल को प्रोत्साहन।
0 Comments