विशेष लेख : आजकल के पुरुस्कार महज उपकृत करने का तरीका : डॉ. चंद्रकांत रामचंद्र वाघ


सम्मान और पुरस्कार की परंपरा पुरानी है। हर क्षेत्र में देने की परंपरा कहा जाए या उपकृत करने की परंपरा हमने राजवाडा के समय से ही देखी है। पहले जिन लोगों ने देश के साथ गददारी किया वो कही मुगल शासको के समय पुरस्कृत होकर कहीं के उनके राज्य अंदर के शासनकाल मे मान साहब या नवाब बनकर उन्हे स्थापित किया गया। वहीं पेशवा के समय जिन लोगों को वहां का सेनापति बनाया गया वो बाद में चलकर महाराजा ही बन गए। फिर अंग्रेजों के समय जिन लोगों ने भी देश के साथ गद्दारी की वो सब पुरस्कृत और सम्मान के कारण राय साहब राय बहादुर जैसे बडे तमगो से नवाजा गए।


जिसके कारण ऐसे मुखबिर लोगों के चलते ही चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी को आज का आजाद हिंद पार्क में शहीद होना पड़ा। वहीं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को भी शहीद होना पड़ा। पर आज झांसी की रानी का परिवार कहां है किस हालात मे है नहीं पता पर उनके साथ जिन्होने गद्दारी की वे परिवार आज तक सत्ता का सुख ले रहे हैं। वहीं हाल अहिंसक आंदोलन वाले भी वंशानुगत सत्ता का लाभ ले रहे है। पर आज भी क्रांतिकारी यो को आजादी के उनके कार्यो पर लोग आज भी प्रश्न चिन्ह खडा कर रहे है। यह है सम्मान की परिभाषा। चलो अब फिल्मी दुनिया के रुपहले पर्दे पर आया जाये। यहां तो सम्मान पहले ही तय कर दिया जाता है। कभी-कभी तो बडे अभिनेताओं के परफार्मेंस सम्मान की कीमत पर तय हो जाती है। इसलिए अधिकांशतः निम्न स्तर की फिल्मे जब पुरस्कार के लिए नामांकित होते है तो पहले पहले आश्चर्य होता था पर बाद मे आदत मे शुमार हो गया।


मुझे अच्छे से याद है कि शायद सन् 1972 मे मनोज कुमार की फिल्म बेईमान को लाइन से सात पुरस्कारों से नवाजा गया था। उसमें से सदाबहार अभिनेता प्रसिद्ध एकमात्र खलनायक स्व. प्राण जी को भी पुरस्कार मिला था। पर वाह रे उम्दा किस्म का इंसान उसने पुरस्कार मे ही बेईमानी के चलते अपने पुरस्कार को ही लेने से इंकार कर दिया था । उनका मानना था कि उस समय की बेस्ट फिल्म पाकीजा थी और बेस्ट संगीतकार गुलाम मोहम्मद थे।


इसके विरोध मे प्राण साहब ने अपने पुरस्कार को ही त्याग दिया। कहां ऐसा उदाहरण मिलेगा और कैसे मिले जब जुगाड़ से किया हुआ काम रहता है तो कोई यह हिम्मत क्यो करे ? फिर यह परंपरा तो यहां स्थापित सी हो गई। यहां एक और परंपरा ने जन्म लिया वो है नवोदित या कमजोर आर्थिक रूप से कलाकारों का जमकर बेजजत करना यह फैशन सा ही हो गया है। एक फिल्म पुरस्कार मे खुले आम सुशांत सिंह राजपूत का भी मजाक उड़ाया गया था।


दुर्भाग्य से यह लोग राजनीतिक और आर्थिक सुदृढ रहते है तो इन्हे पगड़ी उछालने का पट्टा सा ही मिल गया है। यही कारण है कि जिन फिल्मों को जनता का प्यार मिलता है अच्छी होती है वो सम्मान से बाहर हो जाती है। चलिए हम मुद्दे पर आया जाये। देश ने भी देखा है कि बडे पुरस्कार कई बार देने वालो ही अपने नाम से कर लिया। सैयया भये कोतवाल तो डर काहे का । जब कई बडे पुरस्कार प्राप्त लोग होटलों में लड़ते दिखे या कुछ हत्या मे शामिल दिखे तो यह पुरस्कार किन हाथों में चले गया यह लगने लगता है। पर अब यह स्थापित परंपरा सी बन गई है।


जब पुरस्कार पर नजर मारे तो यह पुरस्कार को पूर्णतः अपना ही बना लिया गया है। इसे विभाग ने इसे करीब करीब सेवानिवृत अनुदान राशि बनाकर रख दिया है। बाहर वालो को तो नो इंट्री है पर पहचान वालों को कभी-कभी सुविधा लाभ दे दिया गया है। यहां की खासियत रही हैं कि जिसने आवेदन नहीं किया है यह गंभीरता पूर्वक उसके नाम पर विचार कर मुहर लगा देते। जब अधीनस्थ कर्मचारी जयूरी के पद पर आ जाए तो पूरी अपनी निष्ठा दिखा कर नाम पर सर्वानुमति से नाम घोषित कर देते है। अच्छा हो उस समय के मुख्यमंत्री ने आपत्ति कर ली क्योकि उसी से संबंधित थे तो उसे रद्द कर दिया गया। पर किसी इमानदार का हक तो चला गया। कोई जवाबदेही तय नहीं हुई। बस मजाक बनकर रह गया।


लोगों ने ध्यान दिया होगा जिन लोगों को पुरस्कार मिलता है उनके योगदान को तो उनके आजू बाजू वाले भी नहीं जानतें। कम से कम लोगों को तो उनका नाम तो जाना पहचाना रहना चाहिए। कभी-कभी तो सम्मान लेने मे माहिर लोग अपनी प्रतिभा के बूते तीन सम्मान अलग अलग क्षेत्रों मे लेने मे कामयाब हो जाते हैं। ऐसे लोगों को के लिए तो सरकार किसी की हो फर्क नहीं पड़ता। मैंने हृतिक रोशन वाली अकबर फिल्म का वो दृश्य याद आ गया जिसमे दरबान इनाम की राशि आधी मांगने पर ही दरबार मे जाने की अनुमति देता है। बस हालात बदले नहीं है। दरबारी का रूप बदल गया है।


कई बार तो प्रदेश से बाहर वाले को बुलाकर भी लोगों को पुरस्कार दिया गया है जिससे प्रदेश के योग्य लोगों का हक मारा जाता है। पर यह अनुमति उपर से ही ली जाती होगी वैसे भी बाहर वालो को यहां के सम्मान के बारे में क्या मालूम ? उपकृत करने का सीधा सरल तरीका है। वहीं एक पुरस्कार मैंने शहर मे रहने वाले बड़े आदमी को आदिवासी पुरस्कार के लिए चयन होते देखा तो समझते देर नहीं लगी। एक सम्मान तो अपने पद का फायदा उठाते हुए दिया गया हालाकि लेने वाले पूर्ण योग्य है। पर इस पुरस्कार का देने का मकसद अपने बच्चो को फिल्मी दुनिया मे जमाने के लिए था।


यह देश तो वो देश है जहां तेंदुलकर को तो भारत रत्न दे दिया गया पर भारत का वो महान खिलाड़ी जिसे हिटलर ने भी अपने यहां बुलाया था पर उसे अपने ही देश पर नाज था हाकी का जादूगर मेजर ध्यानचंद को आज तक भारत रत्न नहीं मिला है। बहुत बाते है पर सार एक ही है जुगाड़ योग्यता पर भारी पड़ जाता है। अब सब काम पारदर्शिता के साथ होने चाहिए। जितने भी पुरस्कार के नामिनी होते है उनके नाम सार्वजनिक रूप से आने चाहिए। वहीं जयूरी के नाम भी लोगों को सार्वजनिक रूप से पता होना चाहिए। पता तो चले यह जयूरी लोग बंद दरवाजे मे क्या कर रहे है ? वहीं हमारे जयूरी मेंमबरान कितने योग्य है यह भी लोगों को पता चलेगा। नहीं तो अंधे के हाथ बटेर लगते रहेगा। वहीं यह पुरस्कार प्रदेश का है तो आम लोगों की भी भागीदारी होनी चाहिए। जिससे योग्य लोगों के हाथो में पुरस्कार जाएगा। जिससे पीछे दरवाजा से प्रवेश करने वालो पर भी अंकुश लगेगा।


सम्मान मिलने वालो से प्रदेश ही अपरिचित है तो ऐसे का क्या मतलब ? जब मुसकुराते हुए चेहरे देखता हू तो इनका यह अट्टहास हमारे यह राग दरबारी वाली वयवस्था पर लगता है। पर एक आम आदमी कर भी क्या सकता है। चलो लोगों को यथार्थ का तो पता चले । बस इतना ही..... 


 


 


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