कभी था कश्मीर की घाटी में,
कभी राजस्थान की तपती माटी में,
घर मेरा बने कभी थे असम के जंगल,
आंगन थे कच्छ के रण दल,
चार दीवारों से बना घर में छोड़ आया था,
खुली आसमां और हवाओं को ही छत और दीवार बनाया था,
हां, मै अपना घर छोड़ आया था .....
ईद पर जब तुम सबसे गले मिले थे,
मैंने AK-47 को गले लगाया था,
कुछ स्वप्न मेरी आंखो ने भी देखे थे,
सुखद भविष्य की कल्पनाओं में ये भी खोये थे,
पर पूरा करो तुम अपने ख्वाबों को,
इसलिए नींदों का ख्वाबों से दामन छुड़ा लाया था,
हां मै अपना घर छोड़ आया था.......
मेरा वो अभी लड़कपन ही था,
मुझे भी महबूबा संग घूमना ही था,
पर मै उसे राह में अकेला छोड़ आया था,
जब मोहब्बत अपना AK-103 को बनाया था,
हा, मै अपना घर छोड़ आया था....
वो चौक पड़ी थी मेरे कदमों की आहट से,
डर उसे भी लगा था मेरे वापस न लौट आने से,
जब अपनी मां को सोता छोड़ आया था,
फिर माटी में ही मां-मां कहकर रोया था,
हां, मैं अपना घर छोड़ आया था.....
शायद आंखे तो ना रोयी थी उनकी,
पर शब्द जरूर भर्राए से थे,
मै उन्हें अकेला छोड़ आया था,
जब अपने बाप की पुरानी लाठी तोड़
उन्हें इक नयी थमा आया था,
हां मै अपना घर छोड़ आया था....
- श्रेया
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