भारत की स्वतंत्रता का इतिहास बलिया के वीर सपूतों के अदम्य साहस और बलिदान के बिना अधूरा है। अगस्त 1942 में जब महात्मा गाँधी ने "अंग्रेज़ों भारत छोड़ो" का आह्वान किया, तब पूरे देश में आज़ादी की ज्वाला प्रज्वलित हुई। इसी क्रम में बलिया जनपद ने ऐसा इतिहास रचा, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों को हिला कर रख दिया। 9 अगस्त से लेकर 19 अगस्त 1942 तक बलिया की धरती पर जो घटनाएँ घटित हुईं, वे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के स्वर्णिम अध्याय हैं।
9 अगस्त 1942 – क्रांति की शुरुआत
बलिया की धरती पर क्रांति की गूँज तब सुनाई दी जब 15 वर्षीय साहसी युवक सूरज प्रसाद ने सेंसरशिप के बावजूद समाचार पत्र पाकर क्रांति की जानकारी बाँटी। उन्होंने उमाशंकर सिंह के साथ मिलकर गाँधी जी समेत अन्य नेताओं की गिरफ्तारी का समाचार फैलाया। यह संदेश ही क्रांति का बिगुल बना।
10 से 12 अगस्त – क्रांति का शंखनाद और संघर्ष
13 से 15 अगस्त – स्वतंत्रता की आहट
16 से 18 अगस्त – बलिदान की पराकाष्ठा
19 अगस्त 1942 – स्वतंत्रता का प्रतीक दिन
19 अगस्त 1942 को अंग्रेजी हुकूमत की पकड़ ढीली पड़ गई। बलिया जेल के द्वार तोड़े गए और महान स्वतंत्रता सेनानी पं० चित्तू पाण्डेय, राधामोहन सिंह, पं० महानन्द मिश्र, विश्वनाथ चौबे सहित कई क्रांतिकारी आज़ाद कर दिए गए। यह दिन बलिया की धरती पर स्वतंत्रता का बलिदान दिवस बन गया।
बलिया : स्वतंत्रता संग्राम का ध्वजवाहक
अगस्त 1942 में बलिया ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत की आज़ादी केवल एक सपने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे पाने के लिए बलिदान और साहस की आवश्यकता है। बलिया की क्रांति ने अंग्रेजों को यह एहसास करा दिया कि भारत की जनता अब दासता की जंजीरें तोड़ने के लिए तैयार है।
बलिया के इन वीर सपूतों का त्याग, साहस और शहादत आज भी हमारे लिए प्रेरणास्रोत है। अगस्त क्रांति की यह गाथा सदैव हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता कितने बलिदानों की कीमत पर मिली है।
✍️परिवर्तन चक्र समाचार सेवा
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