कश्मीर : द ब्लीडिंग ब्यूटी


यह कहना कि इन दिनों कश्मीर फिर चर्चा में है, उतना ही सतही एवं ग़लत है जितना कि इलैक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया में अथवा विभिन्न मंचों से इस जटिल समस्या को लेकर व्यक्त किये जाने वाले अधिकांश व्यक्तियों के विचार !

स्वतंत्र भारत के विगत लगभग साढ़े सात दशकों में कश्मीर तो हमेशा ही सुर्खियों में रहा है - कभी पाकिस्तान के कब्जे में जा चुके अपने भू-भाग के चलते, कभी अपने भीतर निरन्तर घनीभूत होती हुई अलगाववादी विचारधारा के हाहाकारी कुकृत्यों के कारण, तो कभी अपनी नैसर्गिक खूबसूरती की वज़ह से भी। हाँ, उन लोगों के लिए यह ज़रूर पाँच अगस्त सन् दो हज़ार उन्नीस के बाद विमर्श या चर्चा का एकमात्र विषय बन गया है जो कश्मीर से धारा - 370/35 ए के हटा दिए जाने के सदमे से अबतक नहीं उबर सके हैं।

वास्तव में, बकौल शाहजहाँ,' धरती के स्वर्ग' कश्मीर की एक सामान्य-सी समस्या को लगभग असाध्य बना देने में किसी शत्रु देश का उतना हाथ नहीं रहा है, जितना कि हमारे अपने बहुरुपिए राजनेताओं, नौकरशाहों, बुद्धिजीवियों एवं अच्छी खासी संख्या में वहाँ फूल-फल रहे सम्प्रदाय विशेष के पाकिस्तान-परस्त कश्मीरियों का। मगर कश्मीर-समस्या को लेकर अपनी राय जाहिर करने वाले सौ में से अस्सी फीसद  पैनलिस्ट, वक्ता तथा विश्लेषक जान-बूझकर, विश्व-बिरादरी की वाहवाही लूटने एवं एक सम्प्रदाय विशेष को खुश रखने के लिए, अन्तिम दो कारकों पर मौन साध लेने की चालाकी अपनाते आये हैं। ऐसे शातिर किस्म के लोग आज भी उसी झूठ को लगातार दुहराते रहने में अपनी शान समझते हैं कि कश्मीर के बहुत थोड़े से मुसलमान दहशतगर्दों और  अलगाववादियों के समर्थक हैं। गिने-चुने लोग ही इस कटु सत्य को स्वीकार करते हैं कि लगातार ऐसे ही भ्रामक नैरेटिव को प्रोत्साहित करते रहने और शेष भारत में रहने वाले देशभक्त मुसलमानों के द्वारा, एकजुट होकर कश्मीर के अलगाववादी तत्वों का मुखर विरोध न किये जाने के कारण ही वहाँ पर देशद्रोहियों का आधार लगातार व्यापक होता गया । अतीत की गलतियों को छोड़ दीजिए। अगर केवल आज से बत्तीस वर्ष पूर्व वहाँ से जबरन खदेड़ दिए गये लगभग पाँच लाख लुटे-पीटे कश्मीरी हिन्दुओं की अभूतपूर्व त्रासदी को लेकर ही हम समस्त भारतीय आन्दोलित हो गये होते, तो न केवल वहाँ के खूनी-लुटेरे-दुष्कर्मी अलगाववादियों को मुँह की खानी पड़ी होती बल्कि विश्व-बिरादरी को भी हमने हमेशा के लिए एक कड़ा संदेश दे दिया होता! मगर हम चूक गये और दुखद बात यह है कि उस भयानक चूक से भी हमारे अधिकांश नीति-नियंताओं ने कोई सबक नहीं लिया।

हाल के दिनों में,जब कश्मीरी हिन्दुओं, सिक्खों एवं भारत- समर्थक मुसलमानों के टार्गेटेड-किलिंग की सनसनीखेज घटनाओं ने एकबार फिर कश्मीर को बहस का मुद्दा बना दिया है, टीवी डिबेट्स और अधिकांश समाचारपत्रों में फिर उन्हीं पाखण्डपूर्ण, गैरजिम्मेदाराना वक्तव्यों का बाहुल्य देखने-सुनने को मिल रहा है। कोई स्वयंभू विशेषज्ञ तोते की तरह कश्मीरियों (मुसलमानों पढ़ें) के साथ लगातार किये जाने वाले अन्याय की बातें कर रहा है, कोई पाकिस्तान और तालिबान को कोस रहा है, तो कोई --विषय की संजीदगी को दरकिनार करके -- एक व्यंग्यात्मक हँसी के साथ, इसका एकमात्र कारण मोदी-सरकार द्वारा धारा-370/35 ए के उन्मूलन को बता रहा है ... 

अगर हम अपने-अपने दुराग्रहों से उपर उठकर विचार कर सकें, तो हमें महसूस होगा कि वर्तमान सरकार द्वारा तीन वर्ष पूर्व कश्मीर से 'दुलरुवा प्रांत' का दर्ज़ा छीनकर, उसे देश के शेष प्रान्तों की तरह ट्रीट करने का समतावादी निर्णय एक ऐसा क्रान्तिकारी और बेहद ज़रूरी क़दम था, जो बहुत पहले उठा लिया जाना चाहिए था। इसके सुखद परिणाम अधिकांश भारतीयों को धरातल पर दिखने भी लगे हैं। बावजूद इसके हममें से कुछ निहित-स्वार्थी तत्व आज भी यही प्रचारित करने में लगे हुए हैं कि केन्द्र सरकार की गलत नीतियों के चलते ही कश्मीर बदहाल होता जा रहा है। ऐसे लोग भली-भांति अवगत होते हुए भी यह मानने को तैयार नहीं कि सात दशकों की 'क्रोनिक समस्या' (जिसके प्रसार में 'अन्दरवालों' का सहयोग व मौन समर्थन सबसे बड़ा फैक्टर रहा है) का कुछ महीनों या बरसों में हल हो जाना कतई सम्भव नहीं है !

सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए विरोधियों के पास तमाम मुद्दे हैं। उनके अन्दर इतनी संवेदनशीलता, इतनी परिपक्वता तो होनी ही चाहिए कि वे किसी दल-विशेष की सरकार पर प्रहार करने की अधीरता में देश के हितों के खिलाफ जाते हुए न प्रतीत हों। पालिटिकल-माइलेज लेने के चक्कर में हम पहले ही देश एवं कश्मीर दोनों को बहुत नुक्सान पहुँचा चुके हैं। अब हमें कश्मीर की समस्या को क्षुद्र राजनीति अथवा पूर्वाग्रहपूर्ण विमर्श का विषय बनाने से परहेज़ करने का  संकल्प लेना ही होगा। यह जानते हुए भी कि हताश और खीझे हुए अलगाववादियों के द्वारा नये-नये तौर-तरीकों से अपने घृणित अभियान को जारी रखने की कोशिशों को आधार बनाकर अपनी सरकार का माखौल उड़ाने से न केवल उन देशद्रोहियों का मनोबल बढ़ता है बल्कि हमारे निष्ठावान और बहादुर सुरक्षाबलों का पुरुषार्थ भी अपमानित होता है, हममें से बहुतेरे अपने उद्गारों पर काबू नहीं रख पाते। हमें लगता है कि एक लोकप्रिय सरकार को शर्मिन्दा करने और जनता के सामने उसे एक्स्पोज़ करने का (विपक्ष में रहते हुए भाजपा भी यही करती थी) यही सुनहरा मौका है।

आइए, देश एवं कश्मीर के हित में, जाति-जमात-दल की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर, हम सवा अरब  भारतवासी (आजादी के अमृत महोत्सव के बहाने ही सही) एकजुट हो जाएं। हम चाहे देश के किसी कोने में रहते हों, कश्मीर में जानो-माल का नुकसान सहने वाले हर देशभक्त कश्मीरी की पक्षधरता में ऐसे अभियान चलाने की नयी परम्परा विकसित करें जिसकी हनक से सरहद के भीतर-बाहर सक्रिय दुश्मनों के हौसले पस्त हो जाएं और आइन्दा वे भारत के किसी कोने में सर उठाने की हिमाकत न कर सकें ! 

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

शशि प्रेमदेव ✍️

शिक्षक एवं साहित्यकार 

कुंवर सिंह इण्टर कालेज, बलिया (उ0प्र0) 



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