*परमात्मा, मानव एवं सत्कर्म...…*


परम पिता परमेश्वर ने,

रच सुंदर तन, दे सुघर रूप।

अनुनय कर रहे, आत्मा से,

कर ग्रहण, मनुज-तन, मम् स्वरूप।


इस तन को साधन बना, धरा

पर, जाकर के सत्कर्म करो।

जा आर्त-प्राणि-पीडा हर कर,

पर-पीडा-हारी-धर्म, करो।


तज स्वार्थ, सदा रत हो, परार्थ, 

छल-छद्म-घृणा से दूर रहो।

तुम बनो, पुस्तकें खुली, सदा,

संदेह-विगत, भर पूर रहो।


कर लेन-देन, आनंदों का,

सुख-दुख विनिमय हो, प्यार भरा।

सब सबके बनें सहायक, हों ,

खुशियों का हो संसार भरा।


मैं परमात्मा, सच्चिदानंद,

तुम अंश, आत्मा मेरी हो।

मैं हूं, शाश्वत आनंद, ब्रह्म,

शाश्वत छाया, तुम मेरी हो।


तज, ऊंच-नीच, मेरा-तेरा

का भाव, सभी का, रंजन-कर।

यदि पुनः लौटकर आओगे,

अपनाऊंगा, अभिनंदन कर।


विद्वत जनों को सादर समर्पित एवं अभिनंदन...…

महेन्द्र राय 

पूर्व प्रवक्ता अंग्रेजी, आजमगढ़। 



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