परम पिता परमेश्वर ने,
रच सुंदर तन, दे सुघर रूप।
अनुनय कर रहे, आत्मा से,
कर ग्रहण, मनुज-तन, मम् स्वरूप।
इस तन को साधन बना, धरा
पर, जाकर के सत्कर्म करो।
जा आर्त-प्राणि-पीडा हर कर,
पर-पीडा-हारी-धर्म, करो।
तज स्वार्थ, सदा रत हो, परार्थ,
छल-छद्म-घृणा से दूर रहो।
तुम बनो, पुस्तकें खुली, सदा,
संदेह-विगत, भर पूर रहो।
कर लेन-देन, आनंदों का,
सुख-दुख विनिमय हो, प्यार भरा।
सब सबके बनें सहायक, हों ,
खुशियों का हो संसार भरा।
मैं परमात्मा, सच्चिदानंद,
तुम अंश, आत्मा मेरी हो।
मैं हूं, शाश्वत आनंद, ब्रह्म,
शाश्वत छाया, तुम मेरी हो।
तज, ऊंच-नीच, मेरा-तेरा
का भाव, सभी का, रंजन-कर।
यदि पुनः लौटकर आओगे,
अपनाऊंगा, अभिनंदन कर।
विद्वत जनों को सादर समर्पित एवं अभिनंदन...…
महेन्द्र राय
पूर्व प्रवक्ता अंग्रेजी, आजमगढ़।
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