देश में आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए जरूरी है राष्ट्रवादी विचारधारा : आलोक प्रताप सिंह

वैसे देखा जाए तो लोगों का समूह इतिहास, परंपरा, संस्कृति एवं बोली भाषा के आधार पर अपने आप को विभाजित करता है। इन्हीं विचारों से लोगों को समझ में आया कि अब एक निर्धारित क्षेत्रीय सीमा की आवश्यकता है, जिसमें आपसी सामंजस्य के साथ स्वयं का संप्रभु राष्ट्र के निर्माण की परिकल्पना की जाए। हालांकि दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जो राष्ट्रवाद की एक विचारधारा से पनपा हो या विकास के पथ पर अग्रसर हो। राष्ट्रवाद की परिकल्पना तो एक राष्ट्र से संभव नहीं है जब तक कि वह एक राज्य न बन जाए। स्नाइडर स्वीकार करते हैं कि राष्ट्रवाद को चित्रित करना वास्तव में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। फिर भी इस विषय में उनके द्वारा दी गई परिभाषा राष्ट्रवाद को प्राप्त करने में सहायक है। जैसा कि उनके द्वारा इंगित किया गया है, 'इतिहास के एक विशिष्ट चरण में राजनीतिक, वित्तीय, सामाजिक और विद्वतापूर्ण कारणों का परिणाम - राष्ट्रवाद एक स्पष्ट कट स्थलाकृतिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों के एक समूह का एक परिप्रेक्ष्य, अनुभव या अनुभूति है जो एक समान भाषा में संवाद करते हैं।, जिनके पास एक लेखन है जिसमें देश की इच्छाओं का संचार किया गया है, जो सामान्य प्रथाओं और तुलनीय परंपराओं को साझा करते हैं, जो अपने निडर पुरुषों से प्यार करते हैं और कभी-कभी एक समान धर्म के होते हैं।राष्ट्रवाद का उदय अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के युरोप में हुआ था, लेकिन अपने केवल दो-ढाई सौ साल पुराने ज्ञात इतिहास के बाद भी यह विचार बेहद शक्तिशाली और टिकाऊ साबित हुआ है। राष्ट्रवाद के प्रतिपादक जॉन गॉटफ्रेड हर्डर थे, जिन्होंने 18वीं सदी में पहली बार इस शब्द का प्रयोग करके जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली। उस समय यह सिद्धान्त दिया गया कि राष्ट्र केवल समान भाषा, नस्ल, धर्म या क्षेत्र से बनता है। किन्तु, जब भी इस आधार पर समरूपता स्थापित करने की कोशिश की गई तो तनाव एवं उग्रता को बल मिला। जब राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणा को ज़ोर-ज़बरदस्ती से लागू करवाया जाता है तो यह ‘अतिराष्ट्रवाद’ या ‘अन्धराष्ट्रवाद’ कहलाता है। इसका अर्थ हुआ कि राष्ट्रवाद जब चरम मूल्य बन जाता है तो सांस्कृतिक विविधता के नष्ट होने का संकट उठ खड़ा होता है।राष्ट्रवाद के आधार पर बने कार्यक्रम और राजनीतिक परियोजना के हिसाब से जब किसी राष्ट्र-राज्य की स्थापना हो जाती है तो उसकी सीमाओं में रहने वालों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी विभिन्न अस्मिताओं के ऊपर राष्ट्र के प्रति निष्ठा को ही अहमियत देंगे। वे राष्ट्र के कानून का पालन करेंगे और उसकी आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान भी दे देंगे। यहाँ यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि आपस में कई समानताएँ होने के बावजूद राष्ट्रवाद और देशभक्ति में अnतर है। राष्ट्रवाद अनिवार्य तौर पर किसी न किसी कार्यक्रम और परियोजना का वाहक होता है, जबकि देशभक्ति की भावना ऐसी किसी शर्त की मोहताज नहीं है।राष्ट्रवाद का अध्ययन करना इसलिए जरूरी है कि वैश्विक मामलों में यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पिछली दो शताब्दियों के दौरान राष्ट्रवाद एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त वेफ रूप में उभरा है जिसने इतिहास रचने में योगदान किया है। इसने उत्कट निष्ठाओं के साथ-साथ गहरे विद्वेषों को भी प्रेरित किया है। इसने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है। इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की तो इसके साथ यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है। साम्राज्यों और राष्ट्रों के ध्वस्त होने का यह भी एक कारण रहा है। राष्ट्रवादी संघर्षों ने राष्ट्रों और साम्राज्यों की सीमाओं के निर्धारण-पुनर्निर्धारण में योगदान किया है। आज भी दुनिया का एक बड़ा भाग विभिन्न राष्ट्र-राज्यों में बंटा हुआ है। हालाँकि राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्संयोजन की प्रक्रिया अभी खत्म नहीं हुई है और मौजूदा राष्टोंं के अन्दर भी अलगाववादी संघर्ष आम बात है। लेकिन राष्ट्रवाद बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में भी सहभागी रहा है। 

यूरोप में बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई और रूसी साम्राज्य तथा इनके साथ एशिया और अप्रफीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली साम्राज्यों के विघटन के मूल में राष्ट्रवाद ही था। भारत तथा अन्य भूतपूर्व उपनिवेशों के औपनिवेशिक शासन से स्वतन्त्र होने के संघर्ष भी राष्ट्रवादी संघर्ष थे। ये संघर्ष विदेशी नियंत्रण से स्वतन्त्र राष्ट्र-राज्य स्थापित करने की आकांक्षा से प्रेरित थे।सत्तर के दशक में होरेस बी. डेविस ने मार्क्सवादी तर्कों का सार-संकलन करते हुए राष्ट्रवाद के एक रूप को ज्ञानोदय से जोड़ कर बुद्धिसंगत करार दिया और दूसरे रूप को संस्कृति और परम्परा से जोड़ कर भावनात्मक बताया। लेकिन, डेविस ने भी राष्ट्रवाद को एक औज़ार से ज़्यादा अहमियत नहीं दी और कहा कि हथौड़े से हत्या भी की जा सकती है और निर्माण भी। राष्ट्रवाद के ज़रिये जब उत्पीड़ित समुदाय अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष करते हैं तो वह एक सकारात्मक नैतिक शक्ति बन जाता है और जब राष्ट्र के नाम पर आक्रमण की कार्रवाई की जाती है तो उसका नैतिक बचाव नहीं किया जा सकता।  राष्ट्रवाद की सभी मार्क्सवादी व्याख्याओं में सर्वाधिक चमकदार थियरी बेनेडिक्ट ऐंडरसन द्वारा प्रतिपादित ‘कल्पित समुदाय’ (इमैजिन्ड कम्युनिटीज़) की मानी जाती है। ऐंडरसन का मुख्य सरोकार यह है कि एक-दूसरे से कभी न मिलने वाले और एक-दूसरे से पूरी तरह अपरिचित लोग राष्ट्रीय एकता में किस तरह बँधे रहते हैं।इस तरह राष्ट्रवाद ‘आधुनिकीकरण के धर्म’ के तौर पर उभरता है। आधुनिकता के कारण सामाजिक जीवन में आयी ज़बरदस्त आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल के बीच राष्ट्रवाद के ज़रिये ही व्यक्ति एक अस्मिता और संसक्ति के सूत्र हासिल कर पाया। दूसरी तरफ़ यह भी एक हकीकत है कि राष्ट्रवाद कई बार आधुनिकीकरण को रोकने या सीमित करने वाली ताकत भी साबित हुआ है। राष्ट्रवादी दलीलों के आधार पर ही ऐसे कई व्यापार समझौतों का विरोध किया जाता है जिनसे राष्ट्रीय उद्योगीकरण और आर्थिक समृद्धि की प्रक्रिया को गति मिल सकती है। राष्ट्रवाद के धार्मिक संस्करण (जैसे, ईरान का इस्लामिक राष्ट्रवाद या भारतीय राजनीति के धार्मिक पहलू) सेकुलरीकरण की प्रक्रिया को अगर पूरी तरह ठप नहीं कर पाते तो धीमा अवश्य कर देते हैं। दूसरे, तीसरी दुनिया के अधिकतर देशों में राष्ट्रवाद करीब आधी सदी बीत जाने के बाद भी उद्योगीकरण और खेतिहर अर्थव्यवस्था की जद्दोजहद में फँसा हुआ है।एक राजनीतिक शक्ति के रूप में राष्ट्रवाद आज भी निर्णायक बना हुआ है। पूर्व में सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी आंदोलन, दुनिया भर में नस्ल और आप्रवासन बहस, और पश्चिम में बीपीओ (बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग) विवाद इसके प्रमाण हैं। फिलिस्तीनियों द्वारा राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का आंदोलन आज भी जारी है। पूर्वी तैमूर हाल ही में इंडोनेशिया से स्वतंत्र हुआ है और एक अलग राष्ट्र बन गया है।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने राष्ट्रवाद के बोलबाला को कुछ हद तक संदिग्ध बना दिया है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उदार और लोकतांत्रिक राज्य के साथ जुड़कर गरीबी और पिछड़ेपन से पीड़ित समाजों को आगे बढ़ाने में राष्ट्रवाद की ऐतिहासिक भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। उत्तर-औपनिवेशिक समाजों ने अपने विकासात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए राष्ट्रवाद का सहारा लिया है। राष्ट्रवाद एक प्रमुख कारक रहा है, विशेष रूप से भारत जैसे बहुल समाजों को एक राजनीतिक समुदाय के रूप में विकसित करने में।

आलोक प्रताप सिंह

विकास अधिकारी

आईसीडीपी, अंबेडकरनगर। 



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