उत्कट देशभक्त, कुशाग्र बुद्धि और साम्राज्यवाद के प्रखर विरोधी थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस


बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि, गम्भीर उत्कट देशभक्ति और भारत सहित तीसरी दुनिया का निर्ममता से शोषण करने वाले निर्लज्ज ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध तीक्ष्ण और प्रखर विरोध नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के व्यक्तित्व का सारतत्व था। अपने आरम्भिक शैक्षणिक जीवन से लेकर कोलकाता विश्वविद्यालय में अध्ययन तक एक विद्यार्थी के रूप उन्होंने विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया था। नेताजी जितने विलक्षण प्रतिभाशाली और कुशाग्र बुद्धि थे उतना ही उनके अंदर  अपनी मातृभूमि और मानवता के लिए  उत्सर्ग और आत्मत्याग की प्रबल और प्रखर भावना थी। 1920 मे उस समय लंदन में आयोजित होने वाली भारतीय असैनिक सेवा की परीक्षा में चतुर्थ स्थान प्राप्त कर अपनी मेधाशक्ति का अहसास ब्रिट्रिश साम्राज्य के नीति निर्माताओं तक को भी कराया था। जो भारतीय असैनिक सेवा उस दौर में भी पढने-लिखने वाले लाखों करोड़ों नौजवानों का स्वर्गजात सपना हुआ करती थी उसमें चतुर्थ स्थान प्राप्त कर अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए एक झटके में ठोकर मार देना उनके आत्मत्याग और उत्सर्ग की अद्वितीय मिसाल है। मूलतः बंगाल से प्रज्वलित राष्ट्रवाद की दीपशिखा से  प्रदीप्त नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी मातृभूमि के लिए आत्म-त्याग और उत्सर्ग की समझदारी और संचेतना महर्षि अरविंद घोष और स्वामी विवेकानंद के महान विचारों से ग्रहण किया था। उनके अंदर राष्ट्र आराधना के लिए एक एक सच्चे सन्यासी की तरह कष्ट सहन की अपरिमित क्षमता थी। स्वाधीनता संग्राम के दौरान बाल गंगाधर तिलक को छोड़ कर अन्य किसी नेता ने उतना कष्ट सहन नहीं किया जितना नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सहन किया। अंग्रेजी सरकार द्वारा उन्हें नाना प्रकार की शारीरिक और मानसिक यातनाऐं दी गई। उन्हें दस बार कारागार में डाला गया और कुल उन्होंने आठ वर्ष तक जेल की यातनाओ से भरी जिंदगी गुजर-बसर की। 

भारतीय स्वाधीनता के आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की गहन और गम्भीर आस्था निष्ठा थी। इन आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों का साक्षात्कार करने के लिए एक ईमानदार विद्यार्थी और भागीरथ सरीखे कर्मयोगी की तरह साधना किया था। भारतीय स्वाधीनता में गहन और गम्भीर आस्था निष्ठा रखने वाले और उसके लिए साहसिक प्रयास करने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को समझौतावादी रवैया कभी पसंद नहीं था और वह प्रवृति से विद्रोही थे। इसीलिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का समुचित आदर करते हुए महात्मा गांधी सहित समस्त सत्याग्रहियों के विचारों के मुखर विरोधी थे और कांग्रेस में रहते हुए वे कांग्रेस के वामपंथी विचारधारा की पृष्ठभूमि वाले नेताओं के समर्थन में खड़े रहे। सुभाष चन्द्र बोस ने कोलकाता तथा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया था और अरविंद घोष और स्वामी विवेकानंद के दार्शनिक एवम आध्यात्मिक विचारों से अनुप्राणित थे। परन्तु भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में उनका मूल्यांकन एक राजनीतिक दार्शनिक और सिद्धांतकार के रूप नहीं किया जाता हैं। इतिहास में  उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का प्रक्षेपण स्वाधीनता के लिए उनके साहसिक प्रयास तथा नेतृत्व के सर्वोत्कृष्ट गुणों से परिपूर्ण राजनीतिक क्रियाकलापो के आधार पर हुआ। प्रकारांतर से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस स्वाधीनता के उत्साही प्रचारक, अटल अडिग उत्कट संघर्षकर्ता, स्वराज के लिए निर्भिक योद्धा, महान कुशल वक्ता, युद्ध भूमि में सर्वश्रेष्ठ रणनीति तैयार करने वाले पराक्रम से परिपूर्ण सेनापति और भारतीय जनमानस में अकल्पनीय जोश उत्पन्न करने की प्रतिभा रखने वाले क्रांतिकारी नेता थे। इन्हीं गुणों के कारण नेताजी दो बार 1938 और 1939 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। नेताजी दार्शनिक और सिद्धांतकार के बजाय एक प्रबल और प्रबुद्ध कर्मयोगी थें ।परन्तु उनकी दूर दृष्टि और दूरदर्शिता अद्वितीय थीं । स्वाधीनता उपरांत भारत के पुनर्निर्माण और विकास की  महायात्रा जिस नियोजित अर्थ व्यवस्था के सिद्धांत के आधार पर सुनिश्चित की गई, भारत में उस नियोजित अर्थव्यवस्था का विचार नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के मस्तिष्क की उपज थी। इसीलिए भारत में सुभाष चन्द्र बोस को योजना आयोग और नियोजित अर्थतंत्र का जनक माना जाता हैं। यह सर्वविदित तथ्य हैं कि-योजना आयोग द्वारा संचालित विविध पंचवर्षीय योजनाओं के बल पर ही हमारे देश ने कृषि से लेकर अंतरिक्ष के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त की है। जिस तरह महात्मा गांधी शास्त्रीय अर्थ में सिद्धांतकार और राजनीतिक विचारक नहीं नहीं थे उसी तरह सुभाष चन्द्र बोस भी सिद्धांतकार और राजनीतिक विचारक नहीं थे । परन्तु स्वाधीनता संग्राम के दौरान संघर्ष की अनुभूतियो और राजनीतिक स्वतंत्रता से साक्षात्कार करने के कारण उनकी पुस्तक 'द इण्डियन स्ट्रगल' में उनकी गम्भीर विश्लेषणात्मक बुद्धि और मौलिक चिंतन का समन्वय स्पष्टतः परिलक्षित होता हैं। देश के सर्वोच्च और सर्वस्व न्योछावर करने की तमन्ना रखने वाले कुशाग्र बुद्धि नेताजी की राजनीतिक ख्याति उस समय बढ गई जब 1935 के भारत शासन अधिनियम में प्रस्तावित संघीय योजना की स्वीकृति का विरोध करने वाली शक्तियों का नेतृत्व किया। तबसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस महात्मा गाँधी के समानान्तर भारतीय राजनीति में एक करिश्माई और लोकप्रिय नेता के रूप में स्थापित होने लगें। नेताजी उस समय अपने राजनीतिक उत्कर्ष के शिखर पर पहुंच गये जब 1939 के कांग्रेस अधिवेशन में गांधी जी द्वारा समर्थित और कांग्रेस के दक्षिणपंथी प्रत्याशी डॉ  पट्टाभि सीतारामय्या को परास्त कर कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। बचपन से ही विद्रोही प्रवृति और स्वाभिमान की चेतना से ओतप्रोत नेताजी को कांग्रेस की आंतरिक गुटबाज़ी ,अत्यधिक तनाव और दबाव मे काम करन रास नहीं आया और अध्यक्ष पद से उन्होने त्यागपत्र दे दिया। 1939 में फॉरवर्ड ब्लॉक नामक नया दल बनाकर एक नया राजनीतिक प्रयास तथा प्रयोग किया। परन्तु अपेक्षित परिणाम नहीं मिला और वह 1940 मे ब्रिट्रिश साम्राज्य के विरुद्ध सामरिक संघर्ष के तौर-तरीकों पर रणनीति बनाने की दृष्टि गुप्त रूप से देश छोड़कर चले गये। इस दौरान उनका देश छोड़कर पेशावर और काबुल होते हुए जर्मनी पहुंचना एक वीर योद्धा की रोमांचित कर देने वाली साहसिक कहानी है। बर्लिन पहुंच कर नेताजी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दमनकारी और मानवता विरोधी नीतियों के विरुद्ध व्यापक प्रचार अभियान चलाया। जून-जुलाई 1943 में जापान पहुंच कर उन्होंने आजाद हिन्द फौज के स्थापना की घोषणा की। 21 अक्तूबर 1943 को बोस ने स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की। जिसे इतिहास में आजाद हिंद सरकार के नाम से जाना जाता है। इसके उपरांत ब्रिट्रेन और फ्रांस के नेतृत्व द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग मित्रराष्ट्रो की सेनाओं के विरुद्ध वीरतापूर्ण अभियान चलाया और भारतीय भू-भाग में प्रवेश करने में भी सफलता प्राप्त की। विशुद्ध राजनीतिक औजारों से स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने वाले सुभाष चन्द्र 1943 के उपरांत सशस्त्र संघर्ष द्वारा आजादी प्राप्त करने की चाहत रखने वाले महायोद्धा बन गए। बोस के राजनीतिक जीवन में यह संक्रमण  एक इतिहास के विद्यार्थी के लिए अत्यंत रोचक है। जो व्यक्ति एक समय स्वराज दल का सदस्य का सक्रिय सदस्य था वह देश की स्वाधीनता के लिए आजाद हिन्द फौज का महासेनायक बन गया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस यथार्थवादी दृष्टिकोण के राजनीतिज्ञ थे इसलिए वह गांधी जी की नैतिक और आदर्शवादी राजनीति से असहमत थे। नेताजी समझौतापरस्त और सौदेबाज़ी की राजनीति के भी खिलाफ थे। उनका विचार था कि-समझौते और सौदेबाज़ी में शक्तिशाली व्यक्ति का पलडा भारी रहता हैं। इसीलिए गांधी जी ने 1931 में लंदन में आयोजित द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में जिस उदारता और खुले मन से रखा उससे नेताजी सुभाष खुश नहीं थे। बोस ने लिखा है कि-यदि महात्मा जी अधिनायक स्टालिन, ड्यूस मुसोलिनी अथवा फ्यूरर हिटलर की भाषा में बोलते तो अंग्रेज उनकी बात को समझते और श्रद्धा से सिर झुका लेते। 

देश के महान स्वाधीनता संग्राम सेनानी, महानायक और महायोद्धा को उनकी जयंती पर पूरा देश पूरी श्रद्धा से नमन कर रहा है। 


मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता 

बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ।

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