कब बरसोगे मेघा प्यारे


उमड़ घुमड़ कर बदरा आये, धरा तुम्हे पुकारे।
रिमझिम वर्षा की बूंदों से, धरा की प्यास बुझा रे।


चहुँ ओर घटा हैं छाये, अब  ना यूँ तरसा रे।
सूख गए हैं ताल, तालिया, हम तेरी राह निहारे।


तुम बिन खेत खलियान हैं सूखे, कृषक की आस तिहारे।
भूख प्यास से हो रहे व्याकुल, अब ना तू तरसा रे।


सूरज देव आग का गोला, झुलस गए हैं सारे।
वन उपवन रसहीन हो गए, नभ से रस टपका रे।


ज्येष्ठ, माह अब बीत गया है, अषाढ़ मास आया रे।
बूंद बूंद पानी को तरसे, बेचैन हुए हैं सारे।


नयन में तुम लगा के कजरा, घूम रहे  घन  द्वारे,
उमड़ घुमड़ कर शोर मचाकर, कब बरसोगे मेघा प्यारे।












स्वरचित ✍️मौलिक व अप्रकाशित
मानसी मित्तल
शिकारपुर, जिला बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश) 

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